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________________ 1164 नैषधमहाकाव्यम् / यत्र वीक्ष्य नलभीमसम्भवे मुह्यतो रतिरतीशयोरपि | स्पर्द्धयेव जयतोर्जयाय ते कामकामरमणीबभूवतुः / / 26 // यति / यत्र सौधे, नलभीमसम्भवे निषधेश भन्यो, वीच्य दृष्ट्वा. मुह्यतोः मोहं गच्छतोः, रूपदर्शनात् विस्मयविमूढयोरित्यर्थः / अत एव स्पर्द्धया साम्येनेव, तुल्य. ताभिमानेनेवेत्यर्थः / जयतोः अभिभवतोः, रतिरतीशयोः रतिकामयोरपि, जयाय अभिभवाय, ते नलदमयन्स्यो, कामकामरमणीबभूवतुः तज्जयाय स्वमन्ये ततोऽप्युस्कृष्ट कन्दर्पकन्दर्पस्त्रियौ जज्ञाते, ते अतिशय्य स्थिते इत्यर्थः / अभूनतदावेच्विः // 26 // जहाँपर नल तथा दमयन्तो को देख कर ( सुरत के लिए ) मोहित होते हुए ( अथवाब्रनयुक्त होते हुए, अथवा-अपनी अपेक्षा उनका अतिशय शरीरसौन्दर्य होनेसे आश्चर्य के कारण मोहित होते हुए ) और मानो स से जीतते हुए कामदेव तथा रतिको जीतने के लिए वे दोनों (नल तथा दमयन्ती ) कामदेव तथा रति हो गये। [नल तथा दमयन्तोके शरीरसौन्दर्य ( या-उनकी रति ) को देखकर कामदेव तथा रति भी आश्चर्यसे (या-सम्भोग करनेके लिये ) मोहित हो गये और उनको मानो ईयासे जीतने लगे तो वे नल तथा दमयन्तो भो उक्तरूप कामदेव तथा रतिको जोतने के लिए स्वयं भो उनसे उत्कृष्ट कामदेव तथा रति हो गये] // 26 // तत्र सौधसुरभूधरे तयोराविरासुरथ कामकेलयः / ये महाकविमिरप्यवीक्षिताः पांशुलाभिरपि ये न शिक्षिताः // 27 // तत्रेति / तत्र तस्मिन् , सौरभूधो मेहतुल्यप्रासादे, तयोः भैमीनलयोः, काम केलयः अनङ्गक्रीडाः / 'द्रव केलिपरिहासा:क्रीडा खेला च' इत्यमरः / अथ आरम्भे कार्थेन वा, अविरासुः आविर्बभूवुः, विहारस्य प्रथमप्रवृत्तिः कास्यन वा प्रवृत्तिरभूदित्यर्थः / प्रादुराविःशभयोः कृस्वस्तिपरनियमात्तत्राम्प्रत्ययवत् कृभ्वस्तिग्रहण. सामर्थ्यात् नास्ति भूभावः / ये केलयः, महाकविभिः वात्स्यायनशास्त्रज्ञैरपि, अवो. क्षिताः अदृष्टाः, वर्णितुमशक्ता इत्यर्थः। तथा ये पांशुलाभिः कुलटाभिरपि, न शिक्षिताः न अभ्यस्ताः, एतेन वर्णयिष्यमाणकाम केलीनाम साधारणत्वं सूच्यते // 27 // उस प्रासादरूपी सुमेरुपर उन दोनों (नल तथा दमयन्ती) की वे कामक्रोड़ाएं होने लगीं, जिनको महाकवि ( कामशास्त्र के रचयिता वात्स्यायन आदि, या-कालिदास आदि) ने भी नहीं देखा ( बुद्धिगोचर किया ) था, तथा ( अनेक जारों के संसर्ग होने पर ) पुंश्चलो (अनेक रतिपण्डिता व्यभिचारिणी स्त्रियों) ने भी नहों सोखा था। [ 'कवयः किं न पश्यन्ति' (कविलोग क्या नहीं देखते अर्थात् सूक्ष्मसे सूक्ष्म वस्तु भो कवियों की बुद्धिमें स्फुरित होता है) नातिके अनुसार महाकविलोगकी बुद्धि में भी जो कामक्रीडा स्फुरित नहीं हुई थी, तथा अनेक पुरुषों के साथ सम्भोग करनेसे व्यभिचारिणो स्त्रियां अधिक क्रोडाचतुर होती है,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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