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________________ अष्टादशः सर्गः। 1163 जहांपर किसी प्रदेशमें हाथसे (तैरकर ) प्राप्त होने योग्य परतीर अर्थात् अतिशय निकट ( समाप्तप्राय ) फलवाले तपस्यारूपी समुद्रको पार नहीं करके (इन्द्र के द्वारा तपस्यामें विघ्न करने के लिए भेजी हुई मेनका आदि ) अप्सराओं के स्तनरूपी घटों (पक्षा०-घटतल्य स्तनों) को ग्रहणकर ठहरे हुए मुनिलोग चित्रित थे। [ जिस प्रकार समुद्रको कठिन परिश्रमसे पार करता हुआ कोई व्यक्ति समुद्रके हाथसे ही पार करने योग्य अर्थात् अत्यन्त निकटस्थ दूसरे किनारे तक तैरकर नहीं पहुँचता, किन्तु घटादिका आश्रय लेकर वहीं ( दूसरे किनारेके पास ही) विश्राम करने लगता है, उसीप्रकार बहुत दिनोंसे की गयी तपस्यासे शीघ्र ही मिलनेवाले उसके फलको नहीं प्राप्तकर अप्सराओं के घटतुल्य स्तनोकों पकड़े हुए अनेक मुनि चित्रित थे। समाप्तप्राय तपवाले उन महातपस्वियोंका चित्र बनाया गया था, नो अप्सराओंका स्तन ग्रहण कर उनके साथ रमण करते थे] // 25 // ( स्वामिना च वहता च तं मया स स्मरः सुरतवर्णनाजितः। योऽयमीहगिति नृत्यते स्म यत्ककिना मुरजनिस्वनैर्घनैः // 1 // ') स्वामिनेति / यस्य सौधस्य सम्बन्धिना केकिना क्रीडामयुरेणेति हेतोर्घनर्निबिडेर्मुरजस्वनैर्मृदङ्गध्वनिभिः, अथ च तैरेव मेधैर्नृत्यते स्म / इति किम्-योऽयमीइग्ब्रह्मादिवशीकारकारी स महाप्रभावः स्मरः स्वामिना कार्तिकेयेण प्रभुणा च तदी. ययानस्वेन तं वहता पृष्ठेन धारयता मया मयूरेण च सुरतवर्जनाजित इति / चावन्योन्यसमुजये। कुमारस्य नैष्ठिकब्रह्मचारित्वान्मयूराणां च वर्षतुकामभाजां नेत्रोपान्तरन्ध्रमांगेंण निर्गच्छतामश्रमयशुक्रबिन्दूनां मयूरीमुखग्रहणमात्रेण गर्भसम्भूते लिङ्गसङ्कर्षणरूपरतपरित्यागो जयहेतुः। मयूराश्च मेघशब्दभ्रान्त्या मृदङ्गाशब्दैर्नृत्यन्ति // 1 // जिस (प्रासाद ) का मयूर 'स्वामी' ( कार्तिकेय, पक्षा-मेरे प्रभु) ने तथा उनको ढोते हुए मैंने जो यह ऐसा ( ब्रह्मा आदिको भी कामपरवश करनेके कारण सुप्रसिद्ध ) है 'उस 'कामदेवको सुरतत्यागसे जीत लिया है। इस विजयभावनासे मृदङ्गध्वनिरूप मेघ (यामेषके गर्जनतल्य मृदङ्गध्वनि ) से नाचता था। [ कामदेव ब्रह्मा, देवेन्द्र, महातपस्वी व्यास, विश्वामित्र आदिको भी कामपरवश करनेसे महापराक्रमी प्रसिद्ध हो रहा है, उस कामदेवको भी मेरे प्रभु कार्तिकेयने तथा आदरातिशयसे उनका वाहन होकर उनको ढोनेवाले मैंने भी जीत लिया है, क्योंकि हम दोनों रति नहीं करते / यहांपर नैष्ठिक ब्रह्मचारी होनेसे कार्तिकेयको तथा मेघतुल्य मृदङ्ग के शब्दसे नाचते हुए मयूरके नेत्रसे गिरे हुए वीर्यरूप अश्रुबिन्दुको मुखसे ग्रहण करने मात्रसे मयूरीको गर्भवती होनेके कारण योनि-शिश्न-सम्बन्धरूप रतिका त्याग करनेसे मयूरको सुरतका त्याग करनेवाला कामविजेता समझना चाहिये ] // 1 // 1. मया 'प्रकाश' व्याख्यया सहायं श्लोकोऽत्र स्थापितः। 73 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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