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________________ 2048 नैषधमहाकाव्यम् / पर्यादिषु' इति द्वितीया। स्त्रीदोषादिव पुरुषदोषादपि कुलहानेरवश्यम्भाव्यत्वेऽपि एकत्राभिनिवेशे ईष्येव केवलं हेतुरिति भावः // 41 // ईर्ष्यावश स्त्री ( पाठा०-स्त्रियों ) को ( शासनसे या अन्तःपुरादिमें रखनेसे ) परपुरुष. संसर्गसे बचाते हुए कामान्धताके सामने होनेपर भी उस प्रकार ( स्त्रियों के समान ) पुरुषको (परस्त्री-संसर्गसे ) नहीं बचाते हुए कुल मर्यादा ( की रक्षा ) का दम्भ (मिथ्याभिमान करनेवालों को धिक्कार है / [ 'कामान्ध स्त्री यदि परपुरुषके साथ सम्भोग करोगी तो कुल मर्यादा नष्ट हो जायेगी' इस विचारसे शासन कर या अन्तःपुर आदि सुरक्षित स्थानोंमें रखकर स्त्री को परपुरुष या द्वितीय विवाहके पतिके संसर्गसे सुरक्षित रखने में और उस कामान्धाताको पुरुषमें भी स्त्रीके समान ही होनेसे पुरुष को उस स्त्रीके समान परस्त्री (दूसरे की स्त्री या दूसरी स्वविवाहिता स्त्री या वेश्यादि ) के संसर्गसे नहीं सुरक्षित रखनेमें केवल स्त्रीके प्रति ईर्ष्या और कुलमर्यादाके नष्ट होने का दम्म ही कारण है; अतः जिस प्रकार स्त्रीको द्वितीय विवाह करनेसे या परपुरुषके संसर्गसे रोका जाता है, उसी प्रकार पुरुषको भी द्वितीय विवाह करनेसे तथा परस्त्री (द्वितीय विवाहकी स्त्री, दूसरे की स्त्री या वेश्यादि अन्य स्त्री) के संसर्गसे रोकना उचित है, परन्तु ऐसा नहीं किया जाता, अत एव जिस प्रकार स्त्रीके परपुरुषका संसर्ग करनेपर कुलमर्यादा नष्ट हो सकती है, उसी प्रकार पुरुषके भी परस्त्री का संसर्ग करने पर कुलमर्यादा नष्ट हो सकती है ] / / 41 // परदारनिवृत्तिर्या सोऽयं स्वयमनाहतः / अहल्याकेलिलोलेन दम्मो दम्भोलिपाणिना // 42 / / परेति / या परदारेभ्यः परस्त्रीसंसर्गेभ्यः, निवृत्तिः उपरतिः, तदर्थमुपदेश इति यावत् , सः अयं परदारा अगम्या इत्यादिरूपः, दम्भः कपटोपदेशः इत्यर्थः, अहल्या. केलिलोलेन गौतमस्त्रीरतिलालसेन, दम्भोलिपाणिना वज्रधरेण इन्द्रेण, स्वयम् आत्मना, अनादृतः उपेक्षितः, अतो न पारदार्यम् अनाचार इति भावः // 42 // ( दूसरेकी स्त्री को देखना भी नहीं चाहिये, फिर स्पर्श करनेकी बात ही क्या है ? इत्यादि शास्त्रीय वचनोंसे ) जो परस्त्रीसे निवृत्ति ( के लिये उपदेश ) है, उस दम्भ ( परवञ्चक कपटोपदेश ) का अहल्याके साथ क्रीडा करनेमें तत्पर ५ज्रपाणि (इन्द्र ) ने स्वयं वही अनादर कर दिया / [ अतएव परस्त्री सम्भोग करने पर शास्त्रोंमें जो प्रायश्चित्त बतलाये है, वे भी व्यर्थ हैं, क्योंकि दूसरेको परस्त्री सम्भोग करनेका निषेध करनेसे और स्वयं वही कार्य करमेसे इन्द्राका उपहास भी सूचित होता है। अथ च-दन्द्र के हाथमें व्रज्र था, अतः समर्थ होनेसे उन्होंने परस्त्री-सम्भोग कर लिया, अतएव यह शास्त्रीय निषेध नहीं है, किन्तु असमर्थ होनेके कारण है ] // 42 // गुरुतल्पगतौ पापकल्पनां त्यजत द्विजाः!। येषां वः पत्युरत्युच्चैर्गुरुदारग्रहे ग्रहः // 43 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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