________________ 1082 नैषधमहाकाव्यम् / (इस प्रकार ( 17183-90 ) इन्द्रके कहने के बाद ) अग्निदेव क्रोधसे जलने लगे और इस ( चार्वाक ) का तिरस्कार करते हुए बोले-रे ! तूने मेरे सामने निरर्गल क्या कहा है ? क्या कहा है ? [ 'रे' सम्बोधनसे, तथा 'क्या कहा है ?' इस वचनके दो बार कहनेसे क्रोधकी अधिकता और उससे स्वतः ज्वलनशील अग्निका अधिक ज्वलित होना सिद्ध होता है ] // 91|| महापराकिणः श्रौत-धमकबलजीविनः / क्षणाभक्षणमूर्खाल ! स्मरन विस्मयसेऽपि न ? / / 62 / / अथ यदन्यत् प्रलपितम् 'अग्निहोत्रं त्रयी' (1738) इत्यादि तत् निराचष्टेमहापराकिण इति / हे क्षणम् अत्यल्पसमयम् , अभक्षणे अभोजने, मूर्छाल ! मूर्छामापन्न ! म्रियमाण ! इत्यर्थः / 'सिध्मादिभ्यश्च' इति सूत्रस्य:सिध्माद्यन्तर्गणे 'क्षुद्रजन्तूपतापाच' इति पाठात् उपतापवाचकात् मूर्छाशब्दात् लचप्रत्ययः। श्रौत. श्रतिचोदितः, धर्मः आचारः एव, अनुष्ठानमेवेत्यर्थः / 'धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः' इत्यमरः। एकं केवलं, वलं सामर्थ्य, तेन जीवन्तीति तादृशान् श्रौत. धमकबलजीविनः वैदिकधर्मानुष्ठानमाहात्म्यादेव प्राणधारिणः, महान्तः महात्मान इत्यर्थः। ये पराकिणः मासोपवासनिष्पाद्यतदाख्यव्रतिनः तान् , स्मरन् चिन्तयन् अपि, न विस्मयसे ? न चित्रीयसे / धर्मोपजीविनी वैदिकाश्विरम् अभोजिनोऽपि धर्मानुष्ठानजनितमनोबलादेव जीवन्ति अतो धर्मस्य अस्तित्वे न कोऽपि संशय इति भावः // 92 // ( अब 'अग्निहोत्रं त्रयो तन्त्रम् ( 17638)', 'नाश्नाति स्नाति (17 / 40 )' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर देते हैं-) हे क्षणभर भोजन नहीं करनेपर मूछित होनेवाले ( नास्तिक चार्वाक ) ! एकमात्र वेदप्रतिपादित धर्मके बलपर जीनेवाले महापराक व्रत करनेवालोंका स्मरणकर आश्चर्यित भी नहीं होते हो ? ( अथवा पाठा०-तुम क्यों नहीं आश्चर्यित होते हो ? ) अर्थात् उन महापराक व्रत करनेवालों के स्मरणमात्रसे तुम्हें आश्चर्यित होना चाहिये, ( पर तुम आश्चर्यित नहीं होते, अत एव मूर्ख हो)। [जो तुम क्षणमात्र भी भोजन नहीं कहनेपर भूखसे मूर्छित हो जाते हो, ऐसे तुमको वेदोक्त धर्मके बलपर बारह दिन तक उपवास करनेसे साध्य महापराक आदि ब्रत करनेवालों को देखकर आश्चर्यित होना तथा वेदोक्त धर्मपर विश्वास भी करना चाहिये ] // 92 // पुत्रेष्टिश्येनकारीरी-मुखा दृष्टफला मखाः। न वः किं धर्मसन्देह-मन्देहजयभानवः // 63 // पुनेष्टीति / हे नास्तिकाः ! पुत्रेष्टिः पुत्रकामयागः, श्येनः शत्रुमारणार्थं तदाख्य. 1. 'न किम् ?' इति पाठान्तरम्। 2. 'पयोश्च' इति पाठः साधीयान् , तथैव गणपाठ उपलब्धेः /