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________________ षोडशः सर्गः। 656 वेगाधिक्येनोस्कृष्टता, अन्यत्र-पुष्पकेण विमानविशेषग, प्रकृष्टता देवतान्तरापेक्षयोस्कृष्टता, अनुमीयते अयं महारथः पुष्पकप्रकृष्टो भवितुमर्हति प्रसूतवत्तादिधर्मसहित. महारथत्वात् कुबेरवदिति अनुमातुं शक्यत्वात् इति भावः / नलकूबरेति पाठे तुप्रसूतवत्ता प्रकृष्टसारथिमत्ता इत्यर्थः / नलेन नैषधेन सह, कूबरस्य रथयुगन्धरस्य, अन्वयात् सम्बन्धात् , प्रकाशिता नलापेक्षया उत्कृष्टसारथेरभावात् तादृशसारथिमस्वेनैवास्य रथस्य पुष्पकापेक्षया प्रकृष्टत्वमनुमितमिति भावः / अत' एवानुमानालकारः, 'साध्यसाधननिर्देशस्त्वनुमानमुदीरितम्' इति लक्षणात्। रूपहेतुत्वेन तर्कानुमानेन वैलक्षण्यं रूपकञ्च प्रसूतवत्तादिप्रकाशितैः तस्प्रकाशितेति श्लिष्टरूपकं द्रष्टव्यम् // 24 // जिस कारण इस महारथ ( बड़े रथ, पक्षा०-दश सहस्र वीरोंको युद्ध करानेवाला तथा अस्त्र-शस्त्रमें प्रवीण शूरवीर ) की श्रेष्ठ सारथिमत्ता ( श्रेष्ठ सारथिवालेका भाव, पक्षा०श्रेष्ठ पुत्रवत्ता ) अग्नि तथा फड़ (जुवा बांधनेका काष्ठ ) के सम्बन्ध (पक्षा०-नलकूबर के योग ) से प्रकाशित ( पक्षा०-शोभित ) है; उस कारण इस (महारथ ) का कुबेरके दृष्टान्तके प्रभावसे पुष्पक (नामक कुबेरके विमान-विशेष ) से ( अधिक वेग होनेसे) श्रेष्ठता ( पक्षा०-'पुष्पक' नामक विमानके कारण अन्यान्य देवोंसे श्रेष्ठता) का अनुमान होता है। ( पाठा०-... ... श्रेष्ठ सारथिवालेका भाव निषधेश्वर नलके साथ...." का ( या कुबेर के साथ नलका ) सम्बन्ध होनेसे प्रकाशित है, उस कारण नलकी अपेक्षा श्रेष्ठ सारथि नहीं हो सकनेसे वैसे परमोत्तम सारथिसे युक्त होनेसे ही इस विशाल रथकी 'पुष्पक' नामक कुबेररथकी अपेक्षा भी श्रेष्ठताका अनुमान होता है)। [ 'पुष्पक' नामक रथका सारथि नल नहीं हैं, अत एव इस रथके साथ उसकी समानता नहीं है और इस रथका सारथि नल है, अत एव यह रथ रमणीय है ] // 24 // महेन्द्रमुच्चैःश्रवसा प्रतायं यन्निजेन पत्याऽकृत सिन्धुरन्वितम् | स तहदेऽस्मै हयरत्नमर्पितं. पुरानुबधु वरुणेन बन्धुताम् / / 25 / / ___ महेन्द्रमिति / सिन्धुः समुद्रः, उच्चैःश्रवसा तन्नामकाश्वेन, महेन्द्र देवराज, प्रतार्य वञ्चयित्वा, यत् हयरत्नम् उच्चैःश्रवसोऽपि श्रेष्ठमित्यर्थः, निजेन पत्या स्वामिना वरुणेनेत्यर्थः, अन्वितं दानेन संयुतम् , अकृत वरुणाय ददौ इत्यर्थः / पुरा स्वयंवरात् पूर्वमेव, बन्धुतां बान्धवत्वम् , अनुबड़े प्रवर्त्तयितुं, वरुणेन अर्पितं भीमाय दत्तं, तत् हयरत्नं, सः भीमः, अस्मै नलाय, ददे दत्तवान् // 25 // समुद्रने उच्चैःश्रवाः ( ऊपर उठे हुए कानोंवाला होनेसे सुलक्षण, पक्षा०-बड़े बड़े कानोंवाला होनेसे कुलक्षण ) नामक घोड़ेसे महेन्द्रको ठगकर जिस घोड़ेको अपने स्वामी ( वरुण ) के लिए दिया, पहले ( स्वयंवरके आरम्भ होनेसे पूर्व) बन्धुत्व स्थिर करने के 1. 'अन्नानुमाना-' इति म० म० शिवदत्तशर्माणः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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