SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तदशः सर्गः। 1031 मरः / वैणैः वीणासम्बन्धिभिः 'तस्येदम्' इत्यण् / ध्वनिभिः शब्दः, व्यनोदयत्, विनोदितवती // 12 // ___ सरस्वती देवीने दमयन्तीके वचनों के विरहसे सन्तप्त उन ( इन्द्रादि देवों ) के कानोंको ( दमयन्तीके वचनोंसे ) कुछ कम वीणास्वरोंसे मार्गमें विनोदित किया / ( बहलाया)। [ दमयन्तीके वचनोंके न सुननेसे उन इन्द्रादि देवों के दोनों कान सन्तप्त हो रहे थे, अतः सरस्वतीने दमयन्तीके वचनोंसे कम मधुर वीणाध्वनियोंसे उनके कानोंको विनोदित किया। लोकमें भी मुख्य वस्तुके अभावमें तत्तुल्य वस्तुसे काम चलाया जाता है; दमयन्तीके वचन सरस्वतीकी वीणाकी ध्वनिसे भी अधिक मधुर थे / सरस्वती देवी वीणा वजाती हुई इन्द्रादि देवों के साथ आकाशमार्गसे जा रही थी] // 12 // अथाऽऽयान्तमवैक्षन्त ते जनौघमसित्विषम् / .. तेषां प्रत्युद्गमप्रीत्या मिलव्योमेव मूर्तिमत् / / 13 // अथेति / अथ तादृशवाणीवीणाध्वनिश्रवणानन्तरं, ते देवाः, आयान्तम् आगच्छन्तम्, असेः खड्गस्य विट् इव स्विट प्रभा यस्य तादृशम् असिनिभकान्तिम्, असिवत् श्यामोज्ज्वलप्रभमित्यर्थः / जनौघं जनसमाज, तेषां देवानां, प्रत्युद्वमप्रीत्या प्रत्युद्गमनार्थ हर्षेण, मिलत् आगच्छत् , मूर्तिमत् विग्रहवत् , व्योम आकाशमिव, इत्युत्प्रेक्षा, अवक्षन्त अपश्यन् // 13 // ___ इस ( सरस्वती देवीके वीणा बजाने ) के बाद उन लोगों (इन्द्रादि चारों देव तथा सरस्वती देवी ) ने तलवार ( पाठा०-स्याही ) के समान कान्तिवाले (श्यामवर्ण या काले). उन ( चारों देव तथा सरस्वती देवी ) के प्रेमसे अगवानी करनेके लिए शरीरधारी आकाश. के समान आते हुए जन-समूहको देखा // 13 // अद्राक्षुराजिहानं ते स्मरमप्रेसरं सुराः। अक्षाविनयशिक्षार्थ कलिनेव पुरस्कृतम् / / 14 // अदातुरिति / ते सुराः इन्द्रादयः, आजिहानम् आगच्छन्तम्, ओहाङ्गता. विति धातोर्लटः शानजादेशः / अग्रेसरं जनौघपुरोवर्त्तिनम्, अत एव अक्षाणाम् इन्द्रियाणाम, अविनयस्य औद्धत्यस्य, दुर्व्यवहारस्य इत्यर्थः / अन्यत्र-अक्षाणां पाशकानाम्, आ सम्यक, विनयः विनीतता, स्ववशीकरणमित्यर्थः / तस्य 'अक्षो रथस्यावयवे पाशकेऽप्यक्षमिन्द्रिये' इति विश्वः / शिक्षार्थम् अभ्यासार्थ, कलिना कलिपुरुषेण पुरस्कृतं पूजितम्, अग्रतः कृतम् इव स्थितम् इत्यर्थः / स्मरं कामम, अद्रातुः अवालो किषत / हशेलुङि 'इरितो वा' इति विकल्पादभावपक्षे. सिचि वृद्धिः॥१४॥ उन लोगों (इन्द्रादि चारो देवों ) ने आगे-आगे आते हुए द्यूतों (पक्षा०-इन्द्रियों ) 1. 'जनौघं मषीविषम्' इति पाठान्तरम् / .... .........
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy