________________ 1030 नैषधमहाकाव्यम् / शोभता था, उसीको कविने उत्प्रेक्षा की है कि सूर्यवंशी राजाओंका श्वेतच्छत्र-सा हुआ। सब इन्द्रादि देव सूर्यमण्डलमें पहुंच गये ] // 9 // नलभीमभुवोः प्रेमिण विस्मिताया दधौ दिवः / पाशिपाशः शिरःकम्पलस्तभूषश्रवः श्रियम् / / 10 // नलेति / पाशिनः वरुणस्य, पाशः वलयाकारपाशास्त्रं, नलभीमभुवोः नलभैम्योः प्रेरिण अन्योऽन्यानुरागे विषये, विस्मितायाः विस्मयाविष्टायाः,दिवः नभसः, शिरःकम्पेन मस्तकचालनेन, स्वस्तभूषस्य गलितावतंसस्य, श्रवसः श्रोत्रस्य, श्रियं शोभां, दधौ धारयामास / अत्र श्रियमिव श्रियमिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः // 10 // वरुणका पाश ( अस्त्र विशेष ) नल तथा दमयन्तीके प्रेम ( के विषय ) में आश्चर्यित आकाशके शिरकंपानेसे गिरे हुए भूषणवाले कानकी शोभाको प्राप्त किया अर्थात् उसके ताटङ्करहित कानके समान वरुणपाश शोमता था // 10 // पवनस्कन्धमारुह्य नृत्यत्तरकरः शिखी। अनेन प्रापि भैमीति भ्रमञ्चक्रे नमःसदान् // 11 // आरुह्य अधिष्ठाय, नृत्यत्तराः अतिशयेन नृत्यन्तः, वायुवेगेन अत्यथं चञ्चला इत्यर्थः / कराः अंशवः हस्ताश्च यस्य सः तादृशः 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः। शिखो अग्निः,नभासदां खेचराणाम् , अनेन अग्निना, भैमी दमयन्ती, प्रापि प्राप्ता, अन्यथा कथमेतज्जम्भणमिति भावः / इति एवं, भ्रमं चक्रे भ्रान्ति जनयामास इत्यर्थः // 11 // . वायुके ( ताराचक्राधारभूत ) कन्धेपर चढ़कर अत्यन्त ऊपर उठती हुई ज्वाला ( पक्षा०-नाचते हुए हाथ ) वाली अग्नि 'इस ( अग्नि ) ने दमयन्तीको पा लिया' ऐसा भ्रम देवताओंको पैदा कर दिया / [ अग्निकी ऊपर उठती हुई ज्वालाओंको देखकर आकाशगामी देवोंको भ्रम हो रहा था कि 'इसने दमयन्तीको पा लिया है'। अन्य भी कोई व्यक्ति नववधूको पानेसे मित्रके कन्धेपर चढ़कर हाथोंको नचाया करता है। प्रकृतमें-अग्नि ताराचक्राधारभूत वायुके ऊपर चल रहा था और उसकी ज्वालाएं चारो ओर हिलती हुई फैल रही थी तो ऐसा ज्ञात होता था कि अग्नि अपने मित्र वायुके कन्धेपर चढ़कर हस्तस्थानीय भुजाओंको फैलाता हुआ नृत्य कर रहा है। ] // 11 // तत्कौँ भारती दूनौ विरहाद् भीमजागिराम् / अध्वनि ध्वनिभिर्वैगैरनुकल्पैव्य॑नोदयत् // 12 // . तदिति / भारती सरस्वती, भीमजागिरां दमयन्तीवचनाना, विरहात् अभावात् अश्रवणादिति यावत् / दूनी परितप्तौ, तेषां देवानां, कर्णौ श्रवणौ, अध्वनि आकाशमार्गे, अनुकल्पैः भैमीगिरां सदृशैः, तदपेक्षया हीनगुणैरित्यर्थः / कुशाभावे काशवत् प्रतिनिधिमिरिति भावः / 'मुख्यः स्यात प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु, ततोऽधमः' इत्य