________________ विंशः सर्गः। 1351 तत्प्रविष्टं सखीकर्णी पत्युरालपितं ह्रिया / पिदधाविव वैदर्भी स्वरहस्याभिसन्धिना // 98 // कर्णपीडने उत्प्रेक्षान्तरमाह-तदिति / वैदर्भी भैमी, सखीकौँ कलायाः श्रवणयुगलम्, प्रविष्टं ढौकितम्, पत्युः नलस्य, तत् पूर्वोक्तम्, आलपितं निजरहस्यभाषि तम्, हिया लजया, स्वरहस्यस्य निजगुप्तव्यापारस्य, अभिसन्धिना निगृहनाभिप्रायेणेव, बहिर्निर्गमननिरोधाभिप्रायेणेवेत्यर्थः / पिदधौ आच्छादयामास, स्वरहस्यः गोपनाय इव कर्णपिधानमकरोदित्युत्प्रेक्षा / यथा कश्चित् निजगोपनीयं द्रव्यं लिप्या. दिकं वा पेटिकादौ संस्थाप्य तस्य बहिः प्रकाशनिरोधार्थं पिधानेन सुदृढं पिदधाति तद्वदिति भावः // 98 // "दमयन्तीने ( सखीके कानों में ) प्रविष्ट अर्थात् कलासे सुने गये पति (नल ) के उस कथन ( रहस्य वृत्तान्त ) को मानो अपने रहस्यके अभिप्रायसे ( यह अतिशय रहस्य फिर कानसे बाहर न निकले अर्थात् इसे कोई दूसरा भी सुनकर मालूम न करले, इस आशयसे ) सखी 'कला' के दोनों कानोंको बन्द कर लिया है। [ लोकमें भी किसी गोप्य वस्तुको किसी बर्तनमें रखकर 'दूसरा कोई इसे मालूम न कर सके' इस अभिप्रायसे उसके ऊपरी भाग ( मुख ) को जिस प्रकार बन्द कर दिया जाता है उसी प्रकार मानो दमयन्तीने भी कलाके कानरूपी बर्तन में प्रविष्ट नलका रहस्य वृत्तान्तरूप गुप्त पदार्थको छिपाने के अभिप्रायसे उसे बन्द कर दिया है ] // 98 // तमालोक्य प्रियाकेलिं नले सोल्लु'ण्ठहासिनि / आरात्तत्त्वमबुद्ध्वाऽपि सख्यः सिस्मियिरेऽपराः // 14 || तमिति / तं पूर्वोक्तम्, प्रियायाः भैम्याः, केलिं सखीकर्णपिधानरूपं विनोदम, आलोक्य वीक्ष्य, नले नैषधे, सोल्लुण्ठं सपरिहासम् , हसति हास्यं कुर्वतीति तादृशे सति, आरात् दूरात् , अपराः कलेतराः, सख्यः वयस्याः, तत्वं यथार्थव्यापारम् , अबुद्ध्वाऽपि अज्ञात्वाऽपि, सिस्मियिरे जहसुः। नलस्य हास्यमात्रदर्शनात ता अपि हसितवत्य इत्यर्थः / दृश्यते च लोके ईदृशव्यापारो नियतमेव // 99 // प्रिया ( दमयन्ती) की वह केलि ( 'कला' के कानोंको बन्द करना ) देखकर नलके परिहासपूर्वक ( या-उच्चस्वरसे ) हंसनेपर दूरसे अर्थात् दूर स्थित रहनेसे वास्तविकताको नहीं जानकर भी ( नलको हँसता हुआ देखकर ही ) दूसरी सखियोंने भी मुस्कुरा दिया। [ लोकमें भी किसी एकको हँसते देखकर दूसरे लोग हंसने के कारणको नहीं जानते हुए भी हंस देते हैं, अत एव दमयन्तीकी दूरस्थ अन्य सखियोंका वैसा करना उचित ही था ] / दम्पत्योरुपरि प्रोत्या ता धराप्सरसस्तयोः / ववृषुः स्मितपुष्पाणि सुरभीणि मुखानिलैः // 100 // 1. 'सोत्पास-' इति पाठान्तरम् /