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________________ 760 नैषधमहाकाव्यम् / बुद्धिसे अर्थात् रक्तवृष्टिको ही सन्ध्या काल समझकर शङ्करजीका सायङ्कालीन सन्ध्या में नृत्त करनेके नियमका भङ्ग न हो इस कारण नाचने ( कम्पित होने ) लगती है / [ यह मगधेश्चर जहाँ सेना लेकर चढ़ाई करता है, वहाँ दिग्दाह, भूकम्प, भस्म तथा रक्तकी वृष्टि आदि अशुभसूचक उत्पात होने लगते हैं, और यही राजा विजयी होता है / अष्टमूर्ति शङ्करजीकी अन्यतमा मूर्ति पृथ्वीका शङ्गरजीके नृत्तके समयमें नृत्त करना ( कंपना) उचित ही हैं ] // 92 // प्रागेतद्वपुरामुखेन्दु सृजतः स्रष्टुः समास्त्विषां कोशः शोषमगाद्गाधजगतीशिल्पेऽप्यनल्पायितः / निःशेषद्यतिमण्डलव्ययवशादीषल्लरेमैष वा शेषः केशमयः किमन्धतमसां स्तोमैस्ततो निर्मितः ? / / 63 / / प्रागिति / प्राक् प्रथम, सद्यकाले इत्यर्थः, एतस्य राज्ञः, वपुः आमुखेन्दु मुखेन्दुपर्यन्तमित्यर्थः, अभिमुख्यार्थेऽव्ययीभावः सृजतः रचयतः, स्रष्टः ब्रह्मणः सम्बन्धी, अगाधजगतीशिल्पेऽपि अखिलजगन्निर्माणेऽपि, अनल्पायितः अनल्पीभूतः, अक्षीणः इत्यर्थः, लोहितादेराकृतिगणत्वात् क्यङि कर्तरि क्तः, समग्रः विषां कोशः तेजोराशिः, शोषं रिक्तताम् , अगात् , ततो निःशेषद्यतिमण्डलव्ययवशात् समग्रतेजोराशिनाशवशात् , ईषल्लभैःसुलभः, तेजःसामान्याभावस्यैव न्यायमते तमोरूपतया सुप्रापैरिति भावः, 'ईषदुः-'इत्यादिना अकृच्छ्रार्थे खल्-प्रत्ययः, अन्धयन्तीत्यन्धानि तमांसि अन्धतमांसि गाढान्धकाराः, 'अवसमन्धेभ्यस्तमसः' इति समासान्तः, तेषां स्तोमैरेष केशपाशात्मकः, शेषो वपुःशेषः, निर्मितो वा ? निर्मितः किम् ? इत्युत्प्रेक्षालङ्कारः, तेन चास्य लोकातिशयतेजो व्यज्यते / / 13 // पहले ( सृष्टि के प्रारम्भमें ) मुख तक इस राजाके शरीरकी रचना किये हुए ब्रह्माका, सम्पूर्ण पृथ्वी अर्थात् संसारकी रचना में भी कम नहीं पड़ा हुआ समस्त कान्तियोंका कोष ( खजाना ) समाप्त हो गया, तब ( ब्रह्माने) सम्पूर्ण कान्ति-समूहके व्यय ( समाप्त ) हो. जानेसे सुलभ ( सरलता से मिलने योग्य) गाढ़-अन्धकार-समूहोंसे बाँकी केश-समूहको रचा है क्या ? / [ लोकमें भी उत्तम वस्तु के समाप्त हो जानेपर सरलतासे प्राप्य सामान्य वस्तुओंसे भी शेष काम पूरा किया जाता है। इस राजाके पैरसे मुखतक समस्त अङ्ग अत्यन्त गौरवर्ण तथा केश अत्यन्त काले हैं ] / / 93 // तत्तदिग्जैत्रयात्रोद्धरतुरगखुराग्रोद्धतैरन्धकारं निर्वाणारिप्रतापानलजमिव सृजत्येष राजा रजोभिः / भूगोलच्छायमायामयगणितविदुन्नेयकायो भियाऽभू देतत्कीर्तिप्रतानैविधुभिरिव युधे राहुराहूयमानः // 94 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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