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________________ द्वादशः सर्गः। 761 तत्तदिति / एष राजा तासां तासां दिशां प्राच्यादीनां, जत्रासु यात्रासु उधुराणाम् उच्छङ्कलानां, तुरगाणाम् अश्वानां, खुराग्रेः उद्धतैः रजोभिः धूलिभिः करणः, निर्वाणात् शान्तात् , अरिप्रतापानलात् जातं तजमिव शत्रुप्रतापाग्निनिर्वाणजन्यमिव स्थितमित्यर्थः, तदभावहेतुकत्वादन्धकारस्येति भावः, अन्धकारं सृजति रात्रि कल्पयतीत्यर्थः। एतस्य कीर्तिप्रतानः कीर्तिपटलरेव, विधुभिः चन्द्रैः, युधे युद्धाय, आहूयमान इव राहुः सैहिकेयः, भिया भयेन, भूगोलस्य भूविम्बस्य, छाया तच्छायं 'विभाषा सेनासुरा-' इत्यादिना नपुंसकत्वम् तदेव माया कपट, तन्मयः स चासो गणितविदुन्नेयो गणितशास्त्रैकवेद्यः, कायो यस्य सोऽभूत् / ज्योतिःशास्त्रप्रमाणकं यत् राहोः भूच्छायात्मकत्वं तदेतत्कीर्तिचन्द्रमियेत्युत्प्रेक्षा, तया च राहुभीषकत्वन कीर्तिचन्द्राणां प्रसिद्धचन्द्रात् आधिक्येन व्यतिरेकालङ्कारः व्यज्यते // 94 // ___ यह ( मगध नरेश ) उन-उन ( पूर्वादि ) दिशाओंके जैत्र (विजयशील ) यात्राओं में उत्साहयुक्त घोड़ों के खुरानोंसे उड़ी हुई धूलियोंसे बुझी ( पक्षा०-नष्ट ) हुई शत्रुओंके प्रतापरूपी अग्निसे उत्पन्न हुएके समान अन्धकार कर देता है तथा इसकी कीतियों के समूहरूप चन्द्रों के द्वारा युद्ध के लिए ललकारा जाता हुआ राहु भयसे भूगोलकी छायाके कपटमय शरीरवाला हो गया, जिसे गणितज्ञ (ज्योतिष शास्त्र के विद्वान् ) लोग अनुमान द्वारा जानते हैं / [ लोकमें धूलिसे अग्निका बुझ जाना और अग्निके बुझनेपर अन्धकार हो जाना अनुभव-सिद्ध है। इस राजाकी दिग्विजय यात्रामें इसकी सेनाके घोड़ोंके खुरसे उड़ी धूलियोंसे किये गये अधिक अन्धकारको देखकर उन-उन दिशाओंके राजा इसके घोड़ोंकी असङ्ख्यतासे भयभीत हो जाते हैं और उनका प्रताप नष्ट हो जाता है / अथ च पहले एक चन्द्रको राहु पराजितकर चन्द्रग्रहण-काल में ग्रस लेता था, किन्तु अब इस राजाके प्रतापरूपी अनेक चन्द्रोंने युद्ध के लिए राहुको ललकारा तो वह भयभीत होकर मुझे कोई पहचान न सके इस विचारसे भूगोलकी छाया बन गया और उसे ज्यौतिष शास्त्रके विद्वान् अनुमान द्वारा पहचानने लगे। लोकमें भी बहुतसे शत्रुओंसे डरा हुआ कोई अकेला शत्रु दूसरा रूप-धारणकर अपनेको छिपा लेता है / ज्योतिष शास्त्रके सिद्धान्तसे राहु सूर्य आदि सात ग्रहोंके अतिरिक्त अन्य कोई ग्रह नहीं है, किन्तु भूमण्डलकी छायामात्र है ] // 94 // आस्ते दामोदरीयामियमुदरदरी याऽधिशय्य त्रिलोकी सम्मातुं शक्तिमन्ति प्रथिमभरवशात्तत्र नैतद्यशांसि / तामेतां पूरयित्वा निरगुरिव मधुध्वंसिनः पाण्डुपद्म च्छमापन्नानि तानि द्विपदशनसनाभीनि नाभीपथेन / / 95 / / आस्ते इति / या इयं त्रिलोकी दामोदरस्य इमां दामोदरीयां वष्णवीम्, उदरदरी कुक्षिकुहरम्, अधिशय्य अधिष्ठाय, आस्ते, तानि प्रसिद्धानि, द्विपदशनसना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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