________________ 1972 नैषधमहाकाव्यम् / इच्छुक प्रियके दोनों भुजाओं में से एक भुजाको शय्यासे अपनी पीठको अत्यधिक दबायी हुई अबला दमयन्तीने बहुत देरतक रोका / [ शय्यापर लेटी हुई दमयन्तीका आलिङ्गन करने के लिए नलने दोनों बाहुओंको (एक नीचे दमयन्तीकी पीठकी ओर तथा दूसरा ऊपर करके ) फैलाया, किन्तु अबला वह दमयन्ती एक साथ दोनों बाहुओं को रोकने में असमर्थ होनेके कारण इशय्यासे अपनी पीठको इतने जोरसे दबाकर सटा दिया कि नलका एक बाहु उसकी पीठके नीचे नहीं घुस सका, अत एव एक हाथसे वे नल उसका आलिङ्गन नही कर सके / अथवा-उक्त प्रकार से तो उस अबला दमयन्तीने प्रियके एक हाथ रोका और दूसरे हाथको अपने दोनों हाथोंसे रोका, इस प्रकार उसने नलको आलिङ्गन करनेसे रोक दिया ] // 40 // हारमाधिमविलोकने मृषा कौतुकं किमपि नाटयन्त्रयम् / कण्ठमूलमदसीयमस्पृशत् पाणिनोपकुचधाविना धवः // 4 // हारेति / धवः पतिः, अयं नलः, हारस्य मुक्तावल्याः, साधिम्नः अतिशयन साधुतायाः, रमणीयताया इत्यर्थः। विलोकने दर्शने, परीक्षार्थमित्यर्थः / किमपि अनिर्दिष्टमित्यर्थः। मृषा मिथ्या, कौतुकं कुतूहलम् , नाटयन् प्रदर्शवन्नित्यर्थः / वस्तुतस्तु पीडनाभिप्रायेणैवेति भावः / उपकुचं कुचसमीपे, धावति द्रुतं गच्छतीति तद्धाविना स्तनसमीपगामिना, पाणिना करेण, अमुष्याः इदम् अदसी दमयन्ती, सम्बन्धि / 'त्यदादीनि च' इति वृद्धसंज्ञायां 'वृद्धाच्छः' इति छप्रत्ययः / कण्ठमलं गलाधोभागम् , उरःस्थलमित्यर्थः / अस्पृशत् स्पृष्टवान् // 41 // हारकी श्रेष्ठता ( पाठा-सुन्दरता ) को देखने में झूठे ही कौतूहलका अभिनय करते हुए पति इस (नल ) ने स्तनों के पासमें दौडते हुए (शीघ्र पहूँचे हुए) हाथसे इस ( दमयन्ती ) के कण्ठमूल ( हृदयोपरिस्थ भाग ) को छू लिया // 41 / / यत् त्वयाऽस्मि सदसि स्रजाऽञ्चितस्तन्मयाऽपि भवदहणाऽर्हति / इत्युदीर्य निजहारमर्पयन्नस्पृशत् स तदुरोजकोरको / / 42 / / यदिति / हे प्रिये ! यत् यस्मात् , त्वया भवत्या, सदसि स्वयंवरसभायाम् , स्रजा वरणमालया, अञ्चितः पजितः, 'अञ्चेः पूजावाम्' इतोडागमः, 'नाम्चेः पूजा. याम्' इत्यनुनासिकलोपप्रतिषेधः / अस्मि भवाभि, अहमिति शेषः / तत् तस्मात् , मयाऽपि भवत्याः तव, अर्हणा पूजा / 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' / अर्हति युज्यते, इति एवम्, उदीर्य उक्त्वा, निजं स्वकम् , हारं कण्ठभूषाम् , अर्पयन् ददत् , गलदेशे सन्निधापयन्नित्यर्थः / सः नलः, तस्याः दमयन्त्याः, उरोजकोरको कुचकुड्: मली, अस्पृशत् स्पृष्टवान् // 42 // 'स्वयंवर सभामें जो तुमने वरणमालासे मेरी पूजा की ( मुझे वरणमाला पहनाकर १.'-चारिम-' इति पाठान्तरम्। 2. 'कृता' इति पाठान्तरम् /