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________________ एकविंशः सर्गः। 1363 सप्ररोहा, दीपरूपाङ्करयुक्तत्यर्थः / रजनी इव हरिदेव, पुरा प्राक, अस्ति आसीत् / 'रजनी पीतिकायां रात्री हरिद्रायाम्' इति विश्वः। हेमलतिकाः स्वर्णलता इव स्थिताः, ते पूर्वोक्ताः, दीपाः आलोकवर्तयः, यत्र सुरार्चावेश्मनि, त्रिदशेभ्यः, देवेभ्यः वितरितुम् उत्सङ्गीकत्तम्, पृताः स्थापिताः, परिचारकैरिति शेषः // 22 // रात्रि, जिन ( दीपकों ) से कान्ति अर्थात् दीपक प्रकाशसे अन्धकारको नष्ट करनेवाली (तेजके ) अङ्कुरसे युक्तके समान तथा जिन ( दीपकों ) से अतिशय पीले वर्णवाली अङ्कुरयुक्त हल्दीके समान थी, स्वर्णलताओं के समान उन दीपकों को जिस ( देव-पूजा-गृह ) में (परिचारकोंने ), देवोंके लिए रक्खा। [ पुजारियोंने . देव-पूजा-गृहमें देवों के लिए दीपक रक्खा ] // 22 // ( यंत्र मौक्तिकमणेविरहेण प्रीतिकामधृतवह्निपदेन / कुङ्कमेन परिपूरितमन्तः शुक्तयः शुशुभिरेऽनुभवन्त्यः // 2 // ) यत्रेति / यत्र देवागारे मौकिकमणेः प्रियतमस्य विरहेण का कुङ्कमस्य स्वोद्दीपनहेतुतया प्रीतिस्तया कामं दत्तं कामेन का वा दत्तं वह्नः पदं दाहकत्वादिरू. पोऽधिकारस्तद्रपंचिह्न वा यस्य तेन कुङ्कुमकेसरेण परिपूरितमन्तमध्यभागमनुभवन्स्यो बिभ्राणाः शुक्तयः शुशुभिरे / वियोगिन्यो हि विरहाग्नितप्तं हृदयमनुभवन्ति। कुङ्कुमपूर्णाः शुक्तयो वियोगिनीरूपेण वर्ण्यन्ते / यद्वा-मौक्तिकमणिविरहेणोपलक्षिताः शुक्तयः कुङ्कुमस्य कामोद्दीपनहेतुतया या प्रीतिस्तया युक्तेन कामेन / अन्य. पूर्ववत् / प्रीतो हि किञ्चित्पदं ददाति शुक्तयो विशिष्टेन कुङ्कुमेनोपलक्षिताः सत्यो मौक्तिकमणिविरहेण पूर्ण मध्यमनुभवन्त्य इव शुशुभिरे इति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा वा। 'प्रीते ति पाठे स्वोद्दीपकत्वेन प्रीतास्कामाद् घृतं करेण लब्धं वह्निपदं येनेत्यर्थः। मुक्ताफलोत्पत्तिहेतुभूताः शुक्तयः पुत्रविरहेण मातरो यथा हृदयान्तर्दहन्ति, तथा कुङ्कुमरूपमन्तर्दाहं वहन्त्यः शुशुभिरे इति वा // 2 // ___ जिस ( देव-पूजा-मन्दिर ) में मोती ( रूपी अत्यन्त प्रिय पुत्र ) के वियोगसे प्रेमसे अच्छी तरह ( या-कामदेवके द्वारां) दिये गये अग्निस्थानीय कुङ्कुमसे परिपूर्ण अन्तःस्तल (मध्यभाग ) को प्राप्त करती हुई शुक्तियां (सी) शोभती थीं। ( अथवा-मोती ( रूप अतिप्रिय पुत्र ) के विरहसे युक्त शुक्तियां ....... )[जिस प्रकार अतिशय प्रियपुत्रके विरह होनेसे उक्त पुत्रमें अतिशय प्रीतिसे माताएँ उसकी विरहाग्निसे अन्तःकरणमें अतिशय जलती हुई पीडित होती हैं, उसी प्रकार स्वोत्पन्न पुत्र-स्थानीय मोतीके पृथक् होनेपर अग्नि-स्थानीय कुङ्कुमसे परि मध्यभागवाली शुक्तियां अन्तर्दाहको धारण करती हुई-सी शोमती थीं। मुक्ताशुक्तियोंमें कुङ्कम रखा गया] // 2 // ] 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यास हैवात्र स्थापितः / 2. 'प्रीतकाम-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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