SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडशः सर्गः। 167 भागस्थ अर्थात् दहने भागमें स्थित, अथवा-फेरा देकर प्रदक्षिण ) किया। [ पहले विवाह में जो अग्नि प्रतिकूल ( पक्षा०-वामभागस्थ ) था, उसे दमयन्तीने तथा बादमें नलने प्रदक्षिणा ( फेरा देते समय दहने भागमें, पक्षा०-अत्यन्त अनुकूल ) किया अर्थात् उनने अग्निकी प्रदक्षिणा की / लोकमें भी विवाहसे पहले प्रतिकूल रहनेवाले व्यक्तिको विवाहकालमें स्तुति आदिसे प्रसन्नकर तथा आगे कर ( या–पुरस्कृतकर ) अत्यन्त अनुकूल बना लिया जाता है ] // 35 // स्थिरा त्वमश्मेव भवेति मन्त्रवागनेशदाशास्य किमाशु तां हिया ? / शिला चलेत् प्रेरणया नृणामपि स्थितेस्तु नाचालि विडोजसाऽपि सा / / स्थिरेति / त्वम् अश्मा पाषाणखण्ड इव, स्थिरा निश्चला, भव तिष्ठेत्यर्थः इति मन्त्रवाक तां दमयन्तीम्, आशास्य स्वाक्षरैः प्रकाश्यां 'शिलावत् अचला भव' इति एवंरूपाम् आशिषं वितीर्य, हिया हीनोपमाकरणहेतुकलज्जया इवेत्युत्प्रेक्षा गम्या, आशु सपदि, अनेशत अदृश्यतां गता, किम् ? वर्णानाम् उच्चरितानन्तरप्र. ध्वंसित्वादिति भावः, नशेलुङि पुषादित्वादङि 'नशिमन्योरलिटयेत्वं वक्तव्यम्' इति एत्वम् / हीनोपमात्वं व्यनक्ति शिला अश्मा, नृणां मनुष्याणाम् अपि,प्रेरणया व्यापारविशेषेण, चलेत्, तु पुनः, सा दमयन्ती, विडोजसा देवेन्द्रेण अपि, स्थितेः पतिव्रता. मार्गात् , न अचालि न चालिता, न चालयितुं शक्तेत्यर्थः, चलेय॑न्तात् कर्मणि लुङ। अत्र पूर्ववाक्यार्थस्योत्तरवाक्यार्थहेतुकरवात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः // 3 // (हे दमयन्ति ! 'इममश्मानमारोह' अर्थात् 'इस पत्थरपर पैर रक्खो' ऐसा मन्त्रोच्चारणकर ) 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा ( नलके द्वारा कथित ) मन्त्रवाक् उसे ( दमयन्तीको, 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा) आशीर्वाद देकर लज्जाके कारण शीघ्र ही नष्ट हो गयी क्या ? ( उसके लज्जित होनेमें यह कारण है कि-) पत्थर तो ( साधारणतम शक्तिवाले) मनुष्योंकी भी प्रेरणा ( हाथ-पैर आदिके व्यापार ) से चलायमान हो जाता है, किन्तु वह ( दमयन्ती ) परमशक्तिशाली इन्द्र के द्वारा भी मर्यादा (मनोव्यापारमात्रसे पतिरूपमें स्वीकृत नलवरणरूप सतीत्व ) से नहीं चलायमान हुई। [ यद्यपि नलोक्त मन्त्रवाक् वर्णरूप होनेसे स्वभावतः नष्ट हो गयी थी, किन्तु उसके शीघ्र नष्ट होनेमें 'पत्थर साधारण शक्तिवाले मनुष्यादिके हाथ आदिके व्यापारसे चञ्चल हो जाता है और दमयन्ती महाशक्तिशाली इन्द्र के अनेक प्रयत्न करने पर भी अपने पातिव्रत्यरूपी मर्यादा पर स्थिर बनी रही, अत एव इस दमयन्तीको उपमेय तथा पत्थरको उपमा बनाकर 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा आशीर्वचन कहना अनुचित होनेसे उस वचनको लज्जित होकर शीघ्र नष्ट होनेकी उत्प्रेक्षा कविने की है। लोकमें भी हीन व्यक्तिको बड़े व्यक्तिसे उच्च श्रेष्ठ कहा जाता है तो वह हीन व्यक्ति लज्जित होकर छिप जाता है। दमयन्तीने विधिप्राप्त अश्मारोहण कार्य किया ] // 36 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy