________________ 668 नैषधमहाकाव्यम् / प्रियांशुकग्रन्थिनिबद्धवालसं तदा पुरोधा विदधद् विदर्भजाम् | जगाद विच्छिद्य पदं प्रयास्यतः नलादविश्वासमिवैष विश्ववित् / / 37 / प्रियेति / तदा तत्काले, विदर्भजां वैदर्भी प्रियस्य नलस्य, अंशुके उत्तरोये, 'अंशुकं श्लचणवस्त्रे स्याद् वस्त्रमात्रोत्तरीययोः' इति मेदिनी / ग्रन्थिना बन्धविशेषेण, निबद्धवाससं ग्रथितांशुकां, विदधत् कुर्वन् , देशाचारप्राप्तत्वादिति भावः / विश्ववित् सर्वज्ञः, त्रिकालज्ञ इत्यर्थः / एष पूर्वोक्तः, पुरोधाः पुरोहितः, गौतमः इति यावत् / पटं वस्त्रं, विच्छिद्य द्वेधा विपाट्य, प्रयास्यतः वने भैमी परित्यज्य गमिष्यतः, नलात् अविश्वासम् अप्रत्ययं, जगादेव उवाचेव, ज्ञापयामासेवेत्यर्थः / आगाम्यर्थज्ञापनार्थमिवानयोरविच्छेदेनावस्थानाथं वस्त्राञ्चलद्वयं जग्रन्थेति उत्प्रेक्षा। भारते आरण्य. पर्वणि नलोपाख्याने श्लोकः,-'ततोद्ध वाससश्छित्त्वा विवस्य च परन्तप!। सुप्ता. मुत्सृज्य वैदभी प्रागवद्गतचेतनः // ' इति // 37 // उस ( विवाहके ) समयमें प्रिय (नल ) के कपड़ेको गांठमें बाँधे गये कपड़ेवाली दमयन्तीको करते हुए सर्वश इस पुरोहित ( गौतम ) ने भविष्यमें कपड़ा काटकर जानेवाले नलसे मानों अविश्वासको कह दिया / [ विवाहकालमें गौतमके द्वारा किये गये ग्रन्थिबन्धन. कर्मको कविने यहाँपर उत्प्रेक्षा की है कि-भविष्यमें नल कपड़ा काटकर तुम्हें छोड़कर चले जायेंगे, अतः इनका विश्वास मत करो और इनके कपड़ेसे अपना कपड़ा बांध लो, जिससे ये तुमको छोड़कर चले न जावें / लोकमें भी किसीके कहीं चले जानेकी आशङ्का होती है तो उसके कपड़ेके साथ अपने कपड़ेमें गांठ बांध लेते हैं / पुरोहित गौतमने विधिप्राप्त दोनोंका ग्रन्थिबन्धनकर्म किया ] // 37 // पौराणिक कथा-महाभारतमें यह कथा आयी है कि नल कलिसे पराजित हो अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति हारकर वनमें दमयन्तीके साथ चले गये, वहाँ पक्षीका रूप धारणकर आये हुए कलिपर उसे पकड़ने के लिये नलने अपना वस्त्र फेंका और पक्षिरूपधारी वह कलि वस्त्र लेकर उड़ गया, बादमें वस्त्रहीन नलने दमयन्तीके आधे वस्त्रको स्वयं पहना और सोई हुई दमयन्तीके आधे वस्त्रको फाड़कर उसे सोई हुई छोड़कर चल दिये। ध्रुवावलोकाय तदुन्मुखभ्रवा निर्दिश्य पत्याऽभिदधे विदर्भजा | किमस्य न स्यादणिमाऽक्षिसाक्षिक स्तथाऽपि तथ्यो महिमाऽऽगमोदितः / / 3 / / ध्रुवेति / ध्रुवावलोकाय दमयन्तीं ध्रुवनक्षत्रप्रदर्शनाय, 'विवाहे ध्रुवमरुन्धतीञ्च दर्शयेत्' इति शास्त्रात् / तदुन्मुखभ्रुवा तदुन्मुखी ध्रुवाभिमुखी भ्रूः यस्य तादृशेन, पत्या नलेन, निर्दिश्य ध्रुवं पश्येति आदिश्य, विदर्भजा वैदर्भी, अभिदधे अभिहिता, 1. 'विदधे' इति पाठान्तरम्।