________________ एकविंशः सर्गः। 1384 शोभाने उस ( नल ) का सेवन किया। [ 'ऊर्ध्ववृत्ततिर्यगर्द्धचन्द्राकारा वर्णानां क्रमात्तिलकाः' अर्थात् 'ऊपर, गोलाकार, तिरछा और अर्द्धचन्द्राकार ब्राह्मणादि वर्गों का क्रमशः तिलक होता है' इस दक्ष-वचनके अनुसार नल के द्वारा लगाया गया गोलाकार मिट्टीका तिलक स्नानलक्ष्मीके मुखचन्द्रतुल्य था और 'हस्तवस्त्रैर्न मार्जयेत्' अर्थात् 'स्नानके बाद हाथ या कपड़ेसे शिरको न पोंछे' इस 'व्यास'-वचनके अनुसार शिर नहीं पोंछनेसे केशमें मुक्तातुल्य जलकी बूँदें स्नानलक्ष्मीके दन्त तुल्य थीं ] // 16 // श्वैत्यशैत्यजलदैवतमन्त्रस्वादुताप्रमुदितां चतुरक्षीम् / वीक्ष्य मोघधृतसौरभलोभ घ्राणमस्य सलिलघ्रमिवाभूत् // 10 // श्वेत्येति / अस्य नलस्य, घ्राणं घ्राणेन्द्रियम् , नासिकेत्यर्थः / चतुर्णा चतुःसङ्ख्यकानाम् , अक्षाणां नयनत्वक्श्रोत्ररसनाख्यानाम् इन्द्रियाणां समाहारः चतुरक्षी तां चतुरक्षीम् , श्वैत्येन जलस्य श्वेततया, तेन नेत्रं प्रमुदितमित्याशयः शैत्येन जलस्यैव शीतत्वेन, तेन च त्वक प्रमुदितेत्याशयः / जलं वारि, दैवतं देवता यस्य तेन तादृशेन मन्त्रेण 'ऋतञ्च सत्यञ्चाभिध्यात्तपसः' इत्यादिमनुना, तच्छवणेन च श्रोत्रेन्द्रियं प्रमदितमित्याशयः / तथा स्वादुतया जलस्यैव माधुर्यण च, तेन च रसना प्रमुदितेत्याशयः / प्रमुदितां प्रहृष्टाम् , वीचयेव दृष्टवेव, मोघं व्यर्थ यथा भवति तथा, वृतः प्राप्तः, सौरभे सौगन्ध्ये, द्रव्यान्तरस्येति शेषः / लोभः लोलुपता येन तत् तादृशं सत् , सलिलं जलम्, जिघ्रति घ्राणविषयीकरोतीति तत् तादृशं सलिलघ्रम् / 'आतोऽ. नुपसर्गे कः'। अभूत् अजायत, अघमर्षणकाले ऋतञ्च इत्यादि मन्त्रं पठन् जलं जिघ्रति स्मेति निष्कर्षः // 17 // (जलकी) स्वच्छता, शीतलता, जलदेवताक ( अघमर्षण ) मन्त्र तथा स्वादसे हर्षित (क्रमशः-नेत्र, त्वक् , कान और जीभ-इन) चार इन्द्रियोंको देखकर इस (नल ) की नासिका व्यर्थमें ही ( अन्य द्रव्यगत) सुगन्धके लोभको ग्रहण की हुई-सी अर्थात् अन्य द्रव्यके सुगन्धको चाहती हुई-सी पानोको सूंघती थी / [पृथ्वीमें गन्धका होना पृथ्वीका असाधारण गुण है तथा जलमें उस गन्ध गुणका सर्वथा अभाव रहता है, द्रव्यान्तरसे सुवासित जलद्वारा देवोंको स्नान करानेका शास्त्रीय निषेध होनेसे औपाधिक सौरभका भी वैसे जलमें सम्मत्र नहीं है; अत एव द्रव्यान्तरमें सौरभ प्राप्त करनेका लोभ करनेवाली नाकने जो जलको संघा वह व्यर्थ ही था, लोभीका विवेकशून्य होकर निष्फल प्रयास करना उचित ही है / नल 'क्रेतञ्च सत्यं...' मन्त्रसे अघमर्षण करने लगे ] // 17 // भ्रान्तयः स्फुरति तेजसि चक्रुस्त्वष्तृतकुंचलदकवितकम् / / 1 // ) 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यया सहैवान निहितः। 2. 'स्फुरिततेजसि' इति पाठान्तरम् /