________________ 794 नैषधमहाकाव्यम् / घरुणपत-जो (सेना) जलभावसे स्थित अर्थात् जलमयी है, अनेक विदारकों * (सूखे हुए जलाशयों में पानी इकट्ठा करने के लिए बनाये गये गढ़ों ) वाली जो (सेना) बलचर जीवों ( मेढक आदि ) के शब्द ( या युद्ध ) से विजयिनी होती है अर्थात् जिस सेनामें विदारकों में स्थित अनेक जलजन्तु शब्द ( या युद्ध ) कर रहे हैं ( अथवा अनेक विदारयुक्त शरीरवाली जो जलचर जीवो....."अथवा-अनेकोंको विदारण ( नाश ) करने चाले जलवाली जो जलचर जीवों... 'अथवा-अनेकोंका विदारण करनेवाले जलका आय ( आगमन ) वाली जो जलचर जीवों... ) / जिसका दूसरा किनारा नहीं देखा गया है, ( अथवा-जिसका दूसरे ( या-शत्रु ) से रुकना नहीं जाना गया है। अथवा-जिसके परप्रदेशके सम्मुख गमन करनेवाला मनुष्य नीचे हैं अर्थात् पानीके बहावमें बहता हुआ मनुष्य नाचेकी ओर ही बहता चला जाता है); वह विशाल (या-अनेक ) समुद्र इस (वरुण ) की सेना है। नलपक्षमें जो ( सेना ) सब ओर फैली हुई है ( अथवा-जो सबमें प्रधानतयाः स्थित है, अथवा-जो सब तरफ मुख करके स्थित है अर्थात् सब तरफ जाने के लिये तैयार है, जो बाहुयु : अर्थात् मल्लयुद्ध ( अथवा-इस (नल) के युद्धों या सिंहनादों से विजयिनी है अर्थात् सेनाके द्वारा यह शत्रुओं पर विजयी नहीं होता किन्तु स्वयं युद करके विजयी होता है), जो अनेकोंका विदारण नाश करनेवाली है, अथवा-जो अनेकों नाशकारक योद्धाओंवाली है, अथवा-अनेकों का नाशक शरीरवाली जो बाहुयुद्ध (या-बाहुयुद्धजन्य ध्वनि ) से विजयिनी सर्वश्रेष्ठ होती है, जिसका शत्रुसे रुकना नहीं जाना गया है अर्थात् जिसे शत्रु कभी नहीं रोक सके हैं ) बहुत-सी तलवारोंकी निधि ( स्थान ) वह सेना इस नल की है / / 21 / / नासीरसीमान धनवनिरस्य भूयान् कुम्भीरवान समकरः महदानवारिः। उत्पद्मकान नसखः सुख मातनोति रत्नरलङ्करणभावमितैनदीनः / / 22 // ___ नासीरेति / नासीरसीमनि पुरोभागे, तटममीपे इति यावत् , घनध्वनिः महाघोषः, मध्य निस्तरङ्गत्वादिति भावः, भूयान् महान् , कुम्भीरवान् नकवान् , 'नक्रस्तु कुमारः' इत्यमरः, समकरो मकरसहितः, दानवारिमा विष्णुना, क्षीरोदशायिनेति भावः, सह वर्तते इति सहदानवारिः, 'वं पसजस्य' इति सहशब्दस्य सभावविकल्पः, उत्पमकाननानाम उत्पद्मानाम् उदितपद्मानाम्, उत्फुल्लपमानामित्यर्थः, उत्शब्दोऽत्र उदयाथकः; काननानां विकशितपावनानां, सखा विकसितपद्मवनसहित इत्यथः, 'राजाहःसखिभ्यष्टच' नदीनाम् इनः पतिः नदीनः समुद्रः, अलमत्यर्थ, करणभावम् उपकरणस्वम्, इतैः प्राप्तः, रत्नैः श्रेष्ठवस्तुभिः; 'रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि मणावपि नपुंसकम्' इत्यमरः, अस्य वरुणस्य, सुखम् आतनोति / अन्यत्र तु-घनस्य मेघस्येव, ध्वनिः बृहितं यस्य सः भूयाननेका समकरः समानशुण्डः, हस्वदीघस्थूला