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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1497 कालः किरातः स्फुटपद्मकस्य वधं व्यधाद्यस्य दिनद्विपस्य / तस्येव संध्या रुचिरात्रधारा ताराञ्च कुम्भस्थलमौक्तिकानि / / 6 / / काल इति। हे प्रिये ! कालः संध्यासमय एव किरातः, अथ च,-कृष्णवर्णो हिंसकत्वान्मृत्युरूपो वा कालो गिरिमहारण्यसंचारी शबरः स्फुटानि विकसितानि पद्मानि यस्मिन् / यद्वा,-विकसितकमलं कं जलं यस्मिन् , अथ च,-प्रकटीभूतं शुण्डादण्डाग्रे प्रकाशमान पद्मक रक्तबिन्दुवृन्दं यस्मिस्ताहशस्य दिनरूपस्य द्विपस्य वधं व्यधादकरोत् / तस्यैव हतस्य करिणो रुचिरा रम्या संध्यानधारा रुचिरधारा / स्थूलमुक्ता इव शोभन्त इत्यर्थः / स्फुटपद्मकस्येति बहुव्रीहौ कप // 9 // सन्ध्यासमय ( पक्षा०-मृत्युरूप, या-कृष्णवर्ण ) किरात विकसित कमलवाले ( जिसमें कमल-पुष्प विकसित हो रहे थे ऐसे, या-जिसमें कमल-पुष्प विकसित हो रहे थे ऐसा जल है जिसमें ऐसे; पक्षा०-(शुण्डादण्डपर ) स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे पद्माकार चिह्नविशेष जिसके ऐसे ) जिस दिनरूपी हाथीका बध किया (दिनका अपसारण किया तथा हाथीको मारा); सन्ध्या ( अरुणवर्ण यह सायकाल ) उसी दिनरूपी हाथीको रमणीय रक्तधारा है तथा नक्षत्र ( उस दिनरूपी हाथीके कुम्भस्थ ) गुजमुक्ताएं हैं // 9 // संध्यासरागः ककुभो विभागः शिवाविवाहे विभुनायमेव | दिग्वाससा पूर्वमवैमि पुष्पसिन्दूरिकापर्वणि पर्यधायि // 10 // संध्येति / विभुना प्रभुणा हरेण पूर्व शिवायाः पार्वत्या विवाहावसरे संध्यया सरागो रक्तवर्णोऽयमेव ककुभः पश्चिमाशाया विभागः प्रदेशः पुष्पवर्णयुक्ता सिन्दूरिका रक्तवस्त्रं तत्संबन्धिनि तद्योगात् पुष्पसिन्दूरिकाख्ये पर्वण्युत्सवे पर्यधायि परिहितः / यतो दिग्वलयमेव वासो यस्य तेन रक्तवस्त्रपरिधानावसरेऽपि दिग्वाससा औचित्याद्रक्तदिग्भाग एव परिहित इत्यवैमिशङ्के। विवाहस्य चतुर्थे दिने प्रथमादिनपरिहितानि वस्त्राणि प्रक्षालनार्थ परित्यज्य पुष्वसिन्दरिकाख्यपर्वणि कौसुम्भादिरक्तवस्त्राणि वधूवरेण परिधीयन्त इति वृद्धाचारः। तत्रेशस्य दिग्वसनत्वाद्रक्तपश्चिमभाग एवानेन परिहित इत्यर्थः / वर्णकभूतपुष्पस्थाने ताराः, सिन्दूरिकास्थाने संध्यासरागः पश्चिमदिग्भाग इति भावः // 10 // स्वामी दिगम्बर (भगवान् शङ्करजी) ने पहले पार्वतीके विवाइमें 'पुष्पसिन्दूरिका' नामक उत्सवके दिन सन्ध्यासे रक्तवर्ण इसी दिशाके हिस्से ( पश्चिम दिशा) को पहना था, ऐसा मैं जानता हूँ। [ कुसुम्मादिके पुष्प तथा सिन्दूरसे रंगे हुए वस्त्रको वधू-वर विवाहसे चौथे दिन पहनते तथा विवाह-समयमें पहने गये वस्त्रको धोने के लिए उतार देते हैं, उसीको 'पूष्पसिन्दूरिका' पर्व कहते हैं। प्रकृतमें भगवान् शङ्करजीने पार्वतीके साथ विवाह होनेके चौथे दिन उक्त पर्वके आनेपर स्वयं दिगम्बर होनेसे मानो पुष्पसिन्दूरसे रंगनेसे
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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