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________________ 1468 नैषधमहाकाव्यम् / रक्तवर्ण इसी पश्चिम दिशाको वस्त्ररूपमें धारण किया / ताराओंको रंगनेवाला पुष्प, सन्ध्या की लालिमाको सिन्दूर तथा पश्चिम दिशाके हिस्सेको वस्त्र समझना चाहिये ] // 10 // प्रातःसायंसंध्ययोः प्राचीप्रतीच्योर्द्वयोरपि तुल्यवर्णस्वारसायंसंध्यारक्तपश्चिमदिश एव पुष्पसिन्दूरिकास्वं कथं वर्ण्यत इत्याक्षेपे तत्परिहारार्थं प्राच्या अपि तद्भावमाह सतीमुमामुद्वहता च पुष्पसिन्दूरिकार्थे वसने सुनेत्रे!। दिशौ द्विसंधीमभि रागशोभे दिग्वाससोभे किमलम्भिषाताम् / / 12 / / सतीमिति / हे सुनेत्रे ! सती दानायणीमुमां पार्वती चोद्बहता परिणयता दिग्वा. ससा हरेण पूर्वोक्तपुष्पसिन्दूरिका) द्विसंधी अभि द्वे अपि प्रातःसायंसंध्ये लक्षीकृत्य द्वे प्राचीप्रतीच्यौ दिशावेव रागेण रक्तवर्णेन शोभा ययोस्ते, रक्तवर्णेन शोभेत इति वा, तादृशे रक्ते उभे द्वे वसने अलम्भिषातां प्राप्ते किम् ?, विवाहद्वये संध्याद्वयरक्त. दिग्द्वयमेव दिग्वसनत्वाद्रक्तवस्त्रद्वयं शिवेन लब्धम्' इत्यहं मन्य इत्यर्थः / शिवेन द्वे दिशावेव वस्त्रे द्वे संध्ये लक्षीकृत्य रागेण रक्षकद्रव्येण कृत्वा ये शोभे कर्मभूते ते प्रापिते किम् ? विवाहे वस्त्रं रञ्जनाय कस्यचिरकरे समर्प्यते तस्माच्छिवेन दिग्व. लयरूपे मम द्वे वस्त्रे भवतीभ्यां रक्तशोभे प्रापणीये इति संध्याद्वयमाज्ञप्तं सहिग्वयं रक्तशोभं चकारेत्यर्थं इति वा / 'सुनेत्रि' इति पाठे-'असंयोगोपधात्' इति निषे. धान्ङीष् चिन्त्यः। द्विसंधीम् , समाहारद्विगोरेकत्वे 'अबान्तो वा' इति स्त्रीत्वे च 'द्विगोः' इति ङीपि 'संध्या' शब्दस्य तद्धितयदन्तत्वात् 'हलस्तद्धितस्य' इति यलोपः। 'अभिरभागे' इत्यभेः कर्मप्रवचनीयस्वात्तद्योगे द्वितीया / गत्यर्थवादणी कर्तुर्गों कर्मत्वं पक्षे // 11 // हे सुलोचने (दमयन्ती ) ! सती ( दक्षकन्या) तथा पार्वतीके साथ विवाह करते हुए दिगम्बर (शङ्करजी) ने दोनों (प्रातःकाल तथा सायङ्कालकी ) सन्ध्याओंको लक्षितकर लाल शोभावाले (पूर्व तथा पश्चिम दिशारूप ) दो वस्त्रोंको 'पुष्पसिन्दूरिका' नामक व्रतके लिये ( श्वशुर दक्षप्रजापति तथा हिमालयसे ) प्राप्त किया था क्या ? ( अथवा-......... शङ्करजीने 'पुष्पसिन्दू रिका' व्रतके लिये पूर्व-पश्चिम दिशारूप दो वस्त्रोंको (रंगने के लिए) दोनों (प्रातःकाल तथा सायंकालकी ) सन्ध्याओंको प्राप्त कराया (दिया ) था क्या ?) / [ प्रथम अर्थमें-शङ्करजीको दिगम्बर होनेसे उनके लिये दिशारूप वस्त्र ही देना उचित समझकर श्वशुरने भी 'पुष्पसिन्दूरिका' व्रतके लिए दोनों सन्ध्याओंको लक्ष्यकर पूर्व-पश्चिमरूप दो दिशाओंको ही वस्त्ररूपमें दिया था। द्वितीय अर्थमें-जिस प्रकार किसीको कोई वस्त्र रंगने के लिए कोई व्यक्ति देता है, उसी प्रकार शङ्करजीने भी 'पुष्पसिन्दूरिका' व्रतमें रंगे हुए लाल वस्त्रोंको पहननेका नियम होनेसे पूर्व-पश्चिम दिशारूप दो वस्त्रों को लाल रंगनेके लिए दोनों सन्ध्याओंको दिया था ] // 11 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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