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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1253 प्रियभाषणको करना ही हमलोगोंका दायित्व, क्योंकि हमलोग नग्नाचार्य (स्तुतिपाठक बन्दियों के आचार्य) हैं, इस कारण हमलोग ( अप्रिय होनेपर भी हितकर वचनको ) विशेषतः कहते हैं / अथवा -जिस कारण बन्दियों के आचार्य हमलोग प्रियवचन कहने में भार ग्रहण करते हैं, उस कारण विशेषतः कहते हैं / अथ च-नग्नोंके आचार्य हैं, अत एव निर्लज्जतम होने के कारण चाहे जो कुछ भला-बुरा कहते हैं ) / प्रातःसन्ध्यादि ( आवश्यक नित्यकर्मके व्याघात करनेसे ) पुण्यकर्मके नर्म ( तुम दोनों के सुरतादिविलास ) का विन्न किया ही है अर्थात् उठने के लिए यह वचन कहकर हमने आप दोनों के सुरतविलासमें बाधक ही वचन कहा है; ( अत एव नर्मविघातक होनेसे) कठोर वह (वचन) तुम दोनों में से एक ( दमयन्ती) के क्रोधाभावके लिए नहीं होवे अर्थात् केवल अक्रोध लिए ही नहीं होवे, किन्तु हर्षके लिए भी होवे [ दमयन्ती इस सुरतविघातक वचनोंसे केवल क्रोधसे रहित ही नहीं होवे, किन्तु धर्मप्रिय तुम्हारे अनुकूल वचनका आदरकर हर्षित भी होवे। अथवा(मर्मविरोधी होनेसे ) कठोर वह वचन पुण्यविरोधी नर्मका विघ्नकारक होकर दमयन्तीके क्रोधाभावके लिए ही न होवे, किन्तु हर्षके लिए भी होवे / अथवा-क्रोधहीन दमयन्तीके ही हर्षके लिए नहीं होवे, किन्तु तुम्हारे हर्षके लिए भी होवे अर्थात् यद्यपि यह वचन सुरतविलासविघातक होनेसे कठोर हैं, तथापि धर्मप्रिया पतिप्राणा दमयन्ती इस धर्मसाधक वचनको सुनकर क्रोध छोड़कर हर्षित ही होगी और तुम तो हषित होवोगे ही। अथवाउक्तरूप वह वचन दमयन्तीके क्रोधाभावके लिए नहीं होवे और हर्षके लिए भी नहीं होवे अर्थात् दययन्ती भले ही क्रोधित या हर्षित-दोनों में से कुछ भी नहीं होवे, किन्तु प्रियवचन कहनेका भार ग्रहण करने के कारण तुम लोगोंके लिए जो उचित है, उसी वचन को हम लोगोंने कहा है // 21 // भव लघुयुताकान्तः सन्ध्यामुपास्स्व तपोमय ! त्वरयति कथं सन्ध्येयं त्वां न नाम निशानुजा ? | द्युतिपतिरथावश्यङ्कारी दिनोदयमासिता हरिपतिहरित्पूर्णभ्रणायितः कियतः क्षणान् ? / / 22 / / भवेति / तपोमय ! हे तपोनिष्ठ ! महाराज ! अत एव विहितकाले सन्ध्यादि. निमित्तं तत्परो भव इत्याशयः / लघु शीघ्रम् ,युता पृथगभूता, कान्ता प्रिया यस्य सः तादृशः युताकान्तः विसृष्टप्रियः / भव जायस्व / कान्ताशब्दस्य प्रियादिपाठात् 'स्त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पूर्वपदस्य न .पुंवद्भावः, 'अप्रियादिषु' इति प्रतिषेधात् / सन्ध्यां प्राभातिकोपासनाम् , उपास्स्व सेवस्व / इयम् उपस्थिता, निशानुजा रात्रेरनन्तरं समाता, सन्ध्या 'प्रातःसन्ध्या, त्वां भवन्तम् , कथं किमर्थम् नाम प्रश्ने, न स्वरयति ? न सत्वरीकरोति ? सन्ध्योपासनार्थमिति भावः। यतः, अथ 1. 'तपोमल' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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