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________________ 864 नैषधमहाकाव्यम्। पत्याविति / भीमजया भैम्या, पत्यौ स्वामिनि, वह्नौ अग्नी, न वृते सति, यः प्रकाशः द्योतः, दीप्तिरित्यर्थः 'प्रकाशो द्योत आतपः' इत्यमरः / जनात् अपत्रप्य लजित्वा, 'लज्जा साऽपत्रपाऽन्यतः' इत्यमरः। 'जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसङ्ख्यानम्' इति पञ्चमी / अह्वाय शीघ्रम्, अह्ना दिवसेन करणेन, स्वं निजम् आत्मस्वरूप. मित्यर्थः, निजुहवे अपहृतवान् , अहनि दीप्तेरप्रकाशादिति भावः; हृतेः कर्तरि लिट् / तस्य वढेः, सहायः अनुचरः, स प्रकाशः : अप्रकाशः अनुज्ज्वलः, वह्निना दीप्तशि. खाभिः स्वरूपप्रकाशे कृतेऽपि दिवालोके तस्य क्षीणप्रभत्वादिति भावः, अभवत् , हा ! कष्टम्; प्रयासवैयादग्निरपत्रपया निस्तेजा इवासीदिति तात्पर्यम् / यद्वातस्य प्रकाशस्य सहायः आत्मनिह्नवे साहाय्यकारी, सः अप्रकाशः दीप्त्यभावः, प्रकाशः पुनरुद्दीपितः, वह्रो उद्गत्वरीभिः शिखाभिः निजरूपेण प्रकाशमाने सति इति भावः, अभवत्, हा ! कष्टम्; स्वामिनि आत्मप्रकाशे कृते अनुचरस्य तद्गोप. नचेष्टावैयादिति भावः // 61 / दमयन्तीके द्वारा अपने स्वामी अग्निको पति नहीं स्वीकार करनेपर, लोगोंसे लज्जित-सा जो प्रकाश वह शीघ्र ही अपनेको दिनसे छिपा लिया (दिन होनेसे अग्निका प्रकाश फीका ही बनारहा तीक्ष्ण नहीं हुआ ), उस अग्निका सहायक वह प्रकाश अप्रकाश (प्रदीप्त लवसे अपना प्रकाश अग्निके करनेपर भी दिनके कारण मन्द) ही रहा, हाय ! खेद है / अथवाउस प्रकाशका ( अपने छिपाने में ) सहायक वह अप्रकाश (दीप्त्यभाव, अग्निकी ज्वाला. ओंके ऊपर निकलने लगनेपर ) प्रकाश (प्रकट ) हो गया हाय ! खेद है। [ प्रथम अर्थमेंदमयन्तीने अग्निको अपना पति नहीं बनाया तो अग्नि-सहायक प्रकाश भी लज्जित होकर अपनेको प्रकाशित (प्रकट ) नहीं किया, अतएव स्वामोके मान-नाशमें सहायकका अप्रकट ( मन्द) होना उचित ही है। दिनके कारण अग्निका प्रकाश मन्द ही रहा, तीव्र नहीं हुआ। द्वितीय अर्थमें-जब अग्निदेव अपना वास्तविक रूप धारणकर स्वयं प्रकट हो गये, तब उनके सहायक प्रकाशका उनको छिपानेकी चेष्टा करना व्यर्थ ही है ] // 61 // सदण्डमालक्तकनेत्रचण्डं तमःकिरं कायमधत्त कालः / तत्कालमन्तःकरणं नृपाणामध्यासितुं कोप इवोपनम्रः।। 62 / / सदण्डमिति / अथ कालः यमः, तत्कालं तस्मिन् स्वयंवरकाले, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, नृपाणाम् अन्तःकरणम् अध्यासितुम्, अधिष्ठातुम्, उपनम्रः उपागतः, कोपः दमयन्त्यनादरोत्थक्रोधः इव, सदण्डं दण्डहस्तम्, आलक्तके रक्ते, 'तेन रक्तं रागात्' इत्यण-प्रत्ययः, कषायो गर्दभस्य कर्णावितिवदलक्तके इत्युपमानाप्रयोगः; ताभ्यां नेत्राभ्यां चण्डं करं, किरति उगिरतीति किरः, 'इगुपधज्ञाप्रीकिरः-' इति कः तमसः किरःतंतमःश्यामं, कायं देहम्, अधत्त, कालोऽपि स्वरूपंप्रादर्शयदित्यर्थः॥१२॥ उस समय राजाओं के अन्तःकरणमें स्थित होनेके लिए उपस्थित क्रोध ( दमयन्तीके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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