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________________ अष्टादशः सर्गः। 1163 अधिक प्रणयकलह (शरीरादि दानमें ) प्रतिकूलता ( अथवा-अधिक प्रणयकलहके कारण शरीरादि दानमें प्रतिकूलता ) तथा लज्जासे दुष्प्राप्य ( अपने ) सुकुमारतम शरीरोंको प्रियतम ( नल ) के लिए देती हुई उस ( दमयन्ती ) ने प्रथम सङ्गमके समान आदरको प्राप्त करावा / [ प्रणय कलहादिके कारण दुष्प्राप्य दमयन्तीके सुकुमारतम अंगोंको पाकर सम्भोगेच्छार्थ वृद्धिंगत कामवाले नलने प्रथम सम्भोगके अत्यधिक प्रसन्नताको प्राप्त किया ] // 77 // पत्युरागिरिशमातरु क्रमात् स्वस्य चागिरिजमालतं वपुः / तस्य चाहमखिलं पतिव्रता क्रीडति स्म तपसा विधाय सा // 78 // पत्युरिति / पतिव्रता साध्वी, सा दमयन्ती, तपसा पतिसेवारूपेण तपस्याप्रभावेण, क्रमात् क्रमानुसारेण, औचित्यानुसारेणेत्यर्थः / पत्युः नलस्य, आगिरिशं शङ्करमारभ्य, आतरु वृक्षपर्यन्तम् , स्वस्य आत्मनश्च, आगिरिजं गिरिजाम् अम्बिका. मारभ्य, आलतं लतापर्यन्तम् / सर्वत्राभिविधावव्ययीभावः। वपुः देवगन्धर्वोरग. मृगविहगादिद्वन्द्वशरीरम् , तथा तस्य वपुषः, अहम् अनुरूपम् , अखिलञ्च समग्रं क्रीडासाधनश्चेत्यर्थः। विधाय कृत्वा. क्रीडति स्म चिक्रीड, पत्युर्गिरिशस्वरूपत्वे स्वस्य गिरिजास्वरूपत्वं तथा तदनुरूपं व्याघ्रचर्मादिरूपशय्यादिकम् , तथा नलस्य वृक्षस्वरूपत्वे स्वस्य लतास्वरूपत्वञ्च सम्पाद्य सा इच्छानुरूपं रेमे / निरङ्कुशमहि. मत्वात् पतिव्रतानामिति भावः // 78 // ___ पतिव्रता वह ( दमयन्ती) पतिके शरीरको शिवजीसे लेकर वृक्षतक ( अथवा-वृक्षसे लेकर शिवतक ) तथा अपने शरीरको पार्वतीसे लेकर लतातक ( अथवा-लतासे लेकर पार्वतीतक ) क्रमशः ( पतिसेवारूप ) तपस्याके द्वारा उस (नल) के योग्य बनाकर क्रीडा करने लगी। [ दमयन्ती पतिव्रता थी, अतः पतिसेवारूप तपस्यासे देवप्राप्त वरदान (14 // 91 ) से अपने शरीरको सर्वथा नलके अनुरूप बनाकर क्रीडा करती थी, यथा-नल शिवरूप होते थे तो वह पार्वतीरूपिणी हो जाती थी और नल वृक्षरूप होते थे तो वह लतारूपिणी हो जाती थी, इसी प्रकार क्रमशः शिवसे वृक्षपर्यन्त नलका शरीर होनेपर वह दमयन्ती पार्वतीसे लतापर्यन्त शरीर धारणकर तथा तदनुरूप ही वेश-भूषा-भाषा आदिको भी ग्रहणकर उनके साथ तद्रप होकर रमण करती थी। पतिव्रताके लिए कोई कर्म असाध्य नहीं है / / 78 // न स्थली न जलधिन काननं नाद्रिभून विषयो न विष्टपम् / क्रीडिता नं सह यत्र तेन सा सा विधैव न यया यया न वा // 6 // नेति / सा भैमी, तेन नलेन सह, यत्र यस्मिन् प्रदेशे, न क्रीडिता न क्रीडितवती / कर्तरि कः। सा ताहशी, स्थली अकृत्रिमभूमिः, स्थलदेश इत्यर्थः, न / 'जानपद-'इस्यादिना अकृत्रिमार्थ ङीष् / स जलधिः नदीसागरतडागादिजलाधार
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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