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________________ 1162 नैषधमहाकाव्यम् / आतदीयहठसम्बुभुक्षुतं नान्वमन्यत पुनस्तमर्थिनम् / / 76 / / स्वाङ्गमिति / सा दमयन्ती, स्वाङ्गं निजवराङ्गादिकम्, अर्पयितुं नलकत्त कस्पर्श ताधथं प्रदातुम् , वामता प्रतिकूलताम् , असम्मतिमित्यर्थः / एत्य प्राप्य, अथ तद. नन्तरम्, रोषितम् इच्छाऽपूरणात् कोपितम, प्रियं पतिम, अनुनीय चरणधारणादिना प्रसाद्य, पुनः भूयः, अर्थिनम् अङ्गार्पणयाचिनम, तं प्रियम , तदीया प्रियसम्बन्धिनी, या हठात् बलात् , सम्बुभुक्षुता सम्भोक्तुमिच्छा, तावत् पर्यन्तम् आतदीयहठसम्बु. भुतुतम्, यावत् स बलपूर्वकं न सम्भोक्तुमैच्छत् तावत्पर्यन्तमित्यर्थः / 'आङ् मर्यादाऽभिविष्योः' इत्यव्ययीभावेन नपुंसकहस्वत्वम् / न अन्वमन्यत न अनुमो. दितवती / व्यवहारोऽयं सम्भोगपिपासावर्द्धनार्थमिति भावः॥ 76 // ___ उस ( दमयन्ती ) ने अपने ( दमयन्तीके) शरीर ( रतिमन्दिर, या-स्तनादि ) को देने के लिए याचक ( 'तुम अपने अमुक शरीरका सम्भोगार्थ अर्पण करो' ऐसी याचना करते हुए ) प्रतिकूलताको प्राप्त होकर अर्थात् देनेका निषेधकर ( अतएव ) क्रोधित प्रिय (नल ) को अनुनीतकर (चरणों पर गिरने, या हाथ जोड़ने आदिसे प्रसन्नकर ) फिर उस ( अङ्गको देने के लिए ) याचना करनेवाले नलको तबतक अनुमति नहीं दी, जबतक उन्होंने बलात्कार से सम्भोग करनेको इच्छा नहीं की। [ नलने दमयन्तीसे उसके काममन्दिर आदि शरीरकी याचना की तो उसने मनाकर दिया, इससे नल कुछ रुष्ट हो गये तो उनको दमयन्तीन अनुनयसे प्रसन्न कर लिया, तदनन्तर जब वे पुनः सम्भोगार्थ उस अङ्गकी याचना करने लगे तब दमयन्तीने तबसक उनको उक्त कार्य के लिए अपनी अनुमति नहीं दी, जबतक उन्होंने हठपूर्वक सम्भोग की इच्छा नहीं की। इस प्रकार निषेध, अनुनयादि करनेसे अनुरागवृद्धि होती है और सम्भोगमें भी अधिक आनन्द आता है ] / / 76 / / आद्यसङ्गमसमादराण्यधाद् वल्लभाय दधती कथञ्चन / अङ्गकानि घनमानवामताब्रीडलम्भितदुरापतानि सा / / 77 // आद्येति / सा नलप्रिया, घनैः प्रगाढः मानवामतात्रीडः प्रणयकोपप्रतिकूलतात. पाभिः, लम्भिता प्रापिता, दुरापता दौलभ्यं येषां तादृशानि, अङ्गकानि सदयभोग्यानि सुकुमारावयवानीत्यर्थः / हस्वे अनुकम्पायां वा कन् / वल्लभाय प्रियनलाय, कथञ्चन लज्जावशात् कृच्छ्रेण, दधती धारयन्ती, ददती सतीत्यर्थः / आद्यसङ्गमेन प्रथमसम्भोगकालेन, समः तुल्यः, आदरः प्राप्त्याग्रहः येषां ताशानि, अधात् पृतवती। प्रथमसङ्गमतुल्यादरं प्राप्तानीव स्वाङ्गानि प्रियाय अर्पित. वतीति भावः / / 77 // दधानया / पत्युरन्वहमहीयत स्फुटं तत्किलाहियत तस्य मानसम् // ' इत्यधिकः श्लोकः क्वापि दृश्यते, इति म०म० शिवदत्तशर्माण आहुः। 1. 'ताम्'-इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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