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________________ अष्टादशः सर्गः। 1191 क्षमा समर्था सती, तं नलम् , अगात् अगच्छत् , समतोषयदित्यर्थः / इणो गा लुङ्॥७४॥ रूप ( देववरदान (14 / 91 ) से विविध शरीरधारणसे उत्पन्न सौन्दर्य ), वेष (महा. राष्ट्र, गुजरात, लाट आदि देशवाली स्त्रियों के भूषण-वस्त्रादिसे शृङ्गाररचना ), वस्त्र (नीले, लाल, पीले, श्वेत, चित्रित आदि विविध रंग-विरंगे कपड़े), अङ्गवासना (चन्दन, कपूर, कस्तूरी, कुङ्कुमादिसे तथा अगर-तगर-चन्दनादि निर्मित धूपोंसे शरीरको सुरभित करना) और भूषण ( अनेकविध मुक्ता, हीरा, पन्ना, माणिक्य आदि जड़े हुए सुवर्णमय अलङ्कार) आदि ( अनेकविध भाषा, गायन कला आदि ) में अलग-अलग चतुरताको करती हुई तथा दूसरी दिव्याङ्गना (उर्वशी, मेना, रम्भा, तिलोत्तमा आदि अप्सराओं या-परमसुन्दरी) युवतियों के भ्रमको उत्पन्न करनेवाली अतएव नयी-सी वह दमयन्ती उस ( नल ) के पास गयी अर्थात दमयन्तीने उन्हें उक्त प्रकारसे दिव्याङ्गनाओं के समान सन्तुष्ट किया / / 74 / / इङ्गितेन निजरागसागरं संविभाव्य चटुभिर्गुणज्ञताम् | भक्तताञ्च परिचर्ययाऽनिशं साऽधिकाधिकवशं व्यधत्त तम् / / 75 / / इङ्गितेनेति / सा भैमी, अनिशं निरन्तरम्, इङ्गितेन कटाक्षवीक्षणादिचेष्टितेन, निजं स्वकीयम् , रागसागरम अनुरागार्णवम्, सागरवदसीममनुरागाधिक्यमित्यर्थः / चटुभिः प्रियवादैः, गुणज्ञतां पत्युः गुणाभिज्ञताम् , तथा परिचर्यया सेवया, भक्त. ताञ्च तस्मिन् भक्तिमत्त्वञ्च, संविभाव्य सम्यग ज्ञापयित्वा, तं प्रियम , अधिकाधिकवशम् उत्तरोत्तरमधिकायत्तम् / 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विरुक्तिः, कर्मधारयवद्धावात् सुपो लुक / व्यधत्त अकरोत् / इङ्गिताद्यनुमितैः। रागादिगुणस्तस्याः सोऽत्यन्तव. शंवदोऽभूत् इति निष्कर्षः // 75 // उस ( दमयन्ती ) ने चेष्टासे अपने अनुरागके समुद्ररूप नलको प्रियभाषणोंसे अपनी गुणज्ञता ( गुणग्राहकता) को तथा सेवासे (पतिविषयिणी अपनी) भक्तियुक्तताको प्रकटित. कर उस ( नल ) को सर्वदा अत्यधिक अपने वशमें कर लिया। [ यहांपर 'चेष्टा' से-सखि आदिसे पतिके गुणों का वर्णन करते हुए भाषण करना, उनके दोषका अपलाप करना (मिथ्या बतलाना ), पतिके बादमें सोना तथा सोकर पतिसे पहले उठना, पतिके आनेपर प्रसन्न होना, बाहर जाने पर उदासीन होना और सुख-दुःखमें समान रहना आदि; 'प्रियभाषण' सेआपके ऐसा सुन्दर, महादानी, वीर सब कलाओंका पण्डित एवं तेजस्वी दूसरा कोई नहीं है, इत्यादि अनुकूल वचन कहना; तथा 'सेवा' से-पलेसे हवा करना, चरण दबाना, पानवीड़ा आदि देना; का ग्रहण करना चाहिये। इनके द्वारा दमयन्तीने नकको सर्वदा अपने वशमें कर लिया]।। 75 // स्वाङ्गमर्पयितुमेत्य वामतां रोषितं प्रियमथानुनीय सा / 1. अत्र इतः प्राक् 'यस्कियां प्रति यदनजस्तया (?) स्वस्वरस्य लघुतां
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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