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________________ 1140 नेषधमहाकाव्यम् / अथेति / अथ पूर्वोक्तरूपदर्शनानन्तरम् , कलिः चतुर्थयुगाधिपतिः, भीमजया भैम्या, जुष्टं सेवितम् , दुष्टग्भिः पापदृष्टिभिः, अन्यत्र-रोगोपहत दृष्टिभिः, दुरालोकं दुर्दर्शनम् , नलं वैरसे निम् , प्रभया दीप्त्या सूर्यभार्यया संज्ञादेव्या च जुष्टं प्रभाविभं प्रभाकर, सूर्यम् इवेत्यर्थः / व्यलोकत अपश्यत् // 202 // . इस ( नगर में परिभ्रमण करनेपर स्वपक्षीय किसी अधर्मकृत्यको नहीं देखने ) के बाद कलिने प्रकृष्ट कान्तिवाली भीमकुमारी ( दमयन्ती ) से युक्त तथा ( राग-द्वेषादिसे कलिके समान ) दूषित दृष्टिवालोंसे कठिनताले देखे जाने योग्य नलको उस प्रकार देखा, जिस प्रकार प्रकृष्ट तेज ( या-'संज्ञा' नामकी अपनी स्त्री ) से युक्त ( काच, कामला आदि रोगोंसे) दूषित दृष्टि ( नेत्र ) वालोंसे प्रभापति ( सूर्य ) को कोई देखता है। [प्रभासे सेवित सूर्य के साथ दमयन्तीसे सेवित नलकी उपमा देने से यह ध्वनित होता है कि समय (रात्रि) के बिना आये जिस प्रकार सूर्यको प्रमासे कोई पृथक् नहीं कर सकता और पृथक् होनेपर भी कुछ समयके बाद पुनः प्रभासे वह सूर्य पूर्ववत् संयुक्त हो जाता है उसी प्रकार नलको भी दमयन्तीसे कलि बिना समय आये पृथक् नहीं कर सकेगा, और फिर नियत समय बीत जानेपर नल पुनः पूर्ववत दमयन्तीको प्राप्त करेंगे] // 202 // तयोः सौहार्दसान्द्रत्वं पश्यन् शल्यमिवानशे / ___ मर्मच्छेदमिवानच्छ स निर्मोक्तिभिमिथः / / 203 / / तयोरिति / सः कलिः, तयोः, भैमीनलयोः, सुहृदोः भावः सौहार्द प्रेम, 'युवादि. भ्योऽण', 'हृद्भग-' इत्यादिना उभयपदवृद्धिः। तस्य सान्द्रत्वं घनत्वम् , पूर्णस्वमि. त्यर्थः। सौहार्दोत्कर्षमिति यावत् / पश्यन् अवलोकयन् , शल्यम् अस्त्रविशेषाघातम् , आनशे इव प्राप इव / तथा मिथः परस्परम् , तयोः भैमीनलयोः, नर्मोक्तिभिः परिहासविशेषैः, मर्मच्छेदं हृदयच्छेदनम् , आनई इव प्राप इव / अनुब. भूव इवेत्यर्थः // 203 // उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) के सौहार्दकी सघनता ( परिपूर्णता ) को देखता हुआ वह ( कलि ) काँटा चुभे हुएके समान पीड़ित हुआ और उनके नोक्तियों ( रतिकालिक परिहास वचनों-पाठा० - नर्म-समूहों ) से (हृदयादि ) मर्मस्थलों के काटे जाने के समान अनुभव किया / 203 // अमर्षादात्मनो दोषात् तयोस्तेजस्वितागुणात् / स्प्रष्टुं दृशाऽप्यनीशस्तौ तस्मादप्यचलत् कलिः / / 204 // अमर्षादिति / कलिः कलियुगम् , अमर्षात् क्रोधात् आत्मनः स्वस्य, दोषात् पापिष्ठत्वापराधात् , तयोः भैमीनलयोः, तेजस्वितागुणाञ्च प्रभावसम्पन्नत्वाच्च, तौ भैमीनलौ, दृशाऽपि दृष्ट्याऽपि, किमुत करेणेति भावः / स्पष्टुं पराम्रष्टुम् , द्रष्टुमपि 1. 'तन्नर्मोर्मि-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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