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________________ 1062 नैषधमहाकाव्यम्। कथयन् यथासङ्घयम् अयंत्वेन वय॑त्वेन च उपदिशन् इत्यर्थः / मनुः आदिस्मृ. तिकर्ता, बुधैः विद्वद्भिः, मुधा वृथैव, श्रद्दधायि अद्धितः, आहत इत्यर्थः / परदाराभिगमनादिरूपमधर्म प्रत्यक्षसुखजनकतया सर्व एवाचरन्ति इति ज्ञात्वा तजन्यकल्पितदुरितपरिहारमपदिश्य धनलाभार्थं प्रायश्चित्तात्मको दण्डो .मनुना विहितः, न तु सदधर्मम् , अतो मनुवचनमूला स्मृतिर्न प्रमाणमिति भावः // 62 // (पूर्व तीन श्लोकों ( 1759-61 ) से वेदकी प्रामाणिकताका खण्डन कर अब स्मृतिकी प्रामाणिकताका खण्डन करता है-) व्याज अर्थात् धर्म-अधर्मके प्रतिपादनके कपट से राष्ट्र ( वासियों ) के शासन के लिए (धर्म-अधर्मको कारण बतलाकर प्रायश्चित्त आदिके द्वारा धनका लोभी ) तथा असाध्य धर्म और अधर्मको कहनेवाले मनुका पण्डितों ( पक्षा०-मूों ) ने व्यर्थ आदर किया है। [ बहुत धनव्यय होनेसे तथा शीत-आतप-भूख-प्यास आदिके असह्य होनेसे अग्निष्टोमादि यज्ञरूप धर्मको और इन्द्रियनिग्रह असाध्य होनेसे एवं प्रत्यक्ष सुखदायी होनेसे परस्त्रीगमनादि रूप अधर्मको ग्रहण तथा त्याग करना अशय है; अतः उनका प्रतिपादन जो राष्टवासियों के शासनको निमित्तकर धर्म-अधर्मके व्याजसे मनुने धनलोभके कारण किया है; उस मनुपर विद्वान् लोग व्यर्थ श्रद्धा करते हैं अर्थात् श्रद्धा नहीं करते, अथवा श्रद्धा नहीं करनी चाहिये, अथवा-'अबुधैः' पदच्छेद करके उसपर मूर्खलोग व्यर्थ श्रद्धा करते हैं अर्थात् कोई भी विद्वान् श्रद्धा नहीं करता। इस कारण आदि स्मृतिकार ब्रह्मपुत्र मनुका धर्माधर्म प्रतिपादनपरक प्रायश्चित्तादिकथन अश्रद्धेय है ] / / 62 / / व्यासस्यैव गिरा तस्मिन् श्रद्धेत्यद्धा स्थ तान्त्रिकाः / मत्स्यस्याप्युपदेश्यान् वः को मत्स्यानपि भाषताम् / / 63 / / व्यासस्येति / व्यासस्य धीवरकन्याव्यभिचारोत्पन्नस्य भ्रातृपत्न्यां सुतोत्पादयितुः स्वयमेव व्यभिचाररतस्य पराशरपुत्रस्यैव, गिरा वाचा, पुराणवाक्येन, मनूक्तं ग्राह्यम् इत्युक्त्या वा इत्यर्थः / तस्मिन् परलोके धर्मे वा, श्रद्धा आदरबुद्धिः, इति एवं, तान्त्रिकाः शास्त्रवेदिनो युक्तिज्ञाः। 'तदधीते तद्वेद' इति ठक। स्थ भवथ, इति अद्धा सत्यम् / पुराणसामान्यमुपहस्य विशेषपुराणमुपहसति-मत्स्यस्य मीनस्यापि, मत्स्यरूपधारिणो विष्णोर्वाक्यरूपस्य मत्स्यपुराणस्यापीत्यर्थः। उपदेश्यान् अनुशासनीयान् , अत एव मत्स्यान् मत्स्यपायान् , वः युष्मान् , कः सुधीः, अपि प्रश्ने, भाषताम् ? आलपतु ? न कोऽपि इत्यर्थः। मत्स्याः कस्यापि न सम्भाष्याः इति भावः। मत्स्यः उपदेष्टा इति स्वकपोलकल्पितं वदन् व्यासो न श्रद्धेयवचन इति तात्पर्यम् // 63 // (निषाद-कन्या के साथ व्यभिचार करनेसे उत्पन्न तथा भ्रातृ-पत्नीमें पुत्रोत्पादन करनेसे स्वयं भी व्यभिचार परायण ) व्यासके ही वचन ( पुराण अथवा-'मनुका कथन ग्राह्य है। इस कथन ) से उस (धर्म या व्यासवचन%Dपुराण, अथवा व्यास ) में सचमुच तान्त्रिक ( तन्त्रशास्त्रके विद्वान् , पक्षा-सूत बुननेका काम करनेवाले जुलाहे अर्थात् जुलाहेके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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