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________________ एकविंशः सर्गः। 1399 ( धत्तुरके फूलोंसे नलके द्वारा पूजित शिवजी इस प्रकार शोभित हुए कि-मानो वे युद्ध में कामदेवको जीतकर उसके पुष्पमय काहला ('तुरही' नामक बाजा ) को लाकर ग्रहण किये हों / अथवा-युद्ध में कामदेवको जीतकर उससे छीने गये पुष्पमय काहलाके समान धत्तूर-पुष्पसे नलके द्वारा पूजित शिवजी शोभने लगे। [प्रथम अर्थमें धत्तुरके पुष्पोंसे नल के द्वारा पूजा करने पर शिवजी स्वयमेव कामदेवको जीत कर पुष्पमय बाणों वाले उस कामदेव के पुष्पमय 'काहला' नामक बाजाको भी छीनकर लाये हुए-से शोभते थे, लोकमें भी कोई वीर वैरीको युद्धमें जीतकर उसके अस्त्र-शस्त्र-बाजा आदिको छीनकर लानेपर शोभित होता है। दूसरे अर्थमें-नलने ही स्वाराध्यदेव शिवजीके शत्रु कामदेवको युद्ध में जीतकर उसके पुष्पमय 'काहला' बाजाको लाकर धत्तर-पुष्परूपमें शिवजीको समर्पित किया है, जिससे वे (शिवजी) शोभते (प्रसन्न होते ) हैं। लोकमें भी कोई वीर अपने स्वामीके शत्रुको युद्धमें जीतकर उसके अस्त्र-शस्त्र-बाजा आदिको लाकर तथा अपने स्वामीके लिए समर्पितकर उसे प्रसन्न करता है। कामदेवके 'काहला' (तुरही) बाजाको धत्तूरके फूलके समान एवं पुष्पमय होनेसे शिवजीपर चढ़ाये गये धत्तूरके फूलकी उक्तरूपसे उत्प्रेक्षा की गयी है / नलने धत्तूरके फूलोंसे शिवजीकी पूजा की। यहांसे लेकर आठ श्लोकों (21 // क्षे० तथा मूल श्लोक 32-38) द्वारा शिव-पूजनका वर्णन किया गया है ] // 3 // अर्चयन् हरकरं स्मितभाजा नागकेसरतरोः प्रसवेन | सोऽयमापयदतिर्यगवाग्दिक-पालपाण्डुरकपालविभूषाम् // 32 // अर्चयन्निति / सः उक्तरूपेण पूजानिरतः, अयम् एषः नलः, स्मितभाजा प्रस्फु. टितेनेत्यर्थः / नागकेसरतरोः तदाख्यवृक्षविशेषस्य,प्रसवेन कुसुमेन साधनेन, हरस्य शम्भोः, करं हस्तम्, अर्चयन पूजयन् , तिरश्च्या दिशः तिर्यग्वर्तमानप्राच्यादिदिग. ष्टकात् , तथा अवाच्या दिशः अधोदिशश्च सकाशात् , अन्या पृथगिति अतिर्यगवाग्दिक ऊर्ध्वा दिक इत्यर्थः। तस्याः पालः रक्षकः, ब्रह्मा इत्यर्थः। तस्य पाण्डुरं पाण्डुवर्णम्, यत् कपालं शिरोऽस्थिखण्डम्, भिक्षापात्ररूपेण हरकत कचिरकालधारणात् गतकृत्ति अत एव पाण्डुवर्ण ब्रह्मणः पञ्चमशिरोऽस्थिखण्डमित्यर्थः / तस्य विभूषामिव विभूषां शोभाम, आपयत् प्रापितवान् / हरेण स्वदुहितरं सन्ध्यां प्रति काम. भावेनानुधावतः ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः छिन्नम्, ततः तत्पापस्य.प्रायश्चित्तं चिकीर्षुः हरः भिक्षार्थ तत् करे दधार, नागकेसरपुष्पस्यापि तस्सदृशपाण्डुवर्णत्वाद् इयमुक्तिोंद्धव्या। नलेन पूजायां दत्तं नागकेसरपुष्पं ब्रह्मकपालसदृशं बभौ इति भावः // 32 // विकसित नागकेसर-पुष्पसे सुवर्णादि धातुमयी ( दक्षिणामूर्ति) शिव (की प्रतिमा) के हाथकी पूजा करते हुए उस्त ( नल ) ने पूर्वादि एवं अधोदिशासे भिन्न दिशा अर्थात् ऊर्ध्वदिशाके पति (ब्रह्मा) के श्वेतवर्ण कपालके भूषणको प्राप्त करा दिया। [शिवप्रतिमाके हाथमें नागकेसरका पुष्प चढ़ानेपर शिव-प्रतिमा हाथमें ब्रह्मकपाल धारण करती हुई-सी शात होती थी / नलने नागकेसर-पुष्पसे शिवकी पूजा की ] // 32 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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