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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1495 द्धोऽटति सर्वत्र गच्छति तादृशोऽतिचञ्चलोऽतिप्रसिद्धो विटः कुनटीमपि नृत्तविद्यायामचतुरामपि भया कायकान्त्या कृत्वा योऽनुरागस्तद्विषये ईशां सौन्दर्यातिशयेनैव. रागमुत्पादयन्तीम्, तथा-शैशवतारुण्ययोः संधौ वर्तमानां प्रादुर्भूतयौवनां रसभावसंधिस्थत्वाद्रसभावज्ञां वा संचिन्त्य कायकान्त्यानुरागे सति कुन टीमपि तरुणों रस. भावज्ञा वा तथेशां संपन्नां च विचिन्त्य तदीयशरीरस्यातिविस्तृततया शुद्धमौक्तिकमालया हारं विरचयति, तन्त्रानुरक्तः संस्तस्यै मुक्ताहारं वितरतीत्यर्थः। एवमन्या अपि योजनाः सुधियोहनीयाः। 'सभानुरागैः संधाय' इति पाठो बहुषु पुस्तकेष्व. दृष्टत्वादुपेक्ष्यः / अटः, पचाद्यच् / संध्याम्, दिगादित्वायत्। 'तार'शब्दस्य नक्षत्र कनीनिकाभिधायित्वं दशमसर्ग एवोक्तम् // 7 // (इस समय सन्ध्या तथा नक्षत्रोंके योगका वर्णन करते हैं-) वे महानट (नृत्य करने में सुप्रसिद्ध शिवजी ) मैनसिलरूपिणी अर्थात मैनसिलके समान लाल सन्ध्या ( साय. काल ) को सूर्यकी लालिमा ( उत्पन्न करने ) में समर्थ जानकर अर्थात् सूर्यको लाल करनेवाली यह सन्ध्याकाल ही आ गया है ऐसा निश्चितकर तारासमूह ही है माला जिसमें ऐसे आकाशात्मक शरीरसे इस समय (नृत्त-कालमें ) अङ्गहार ( शरीरका सञ्चालनादि ) करते हैं क्या ? [ यहां आठ मूर्तियोंवाले शिवजीकी 'आकाश' को भी अन्यतम मूर्ति होनेसे उसका अङ्गहार करना कहा गया है। यद्यपि 'आकाश' अमूर्तपदार्थ है, तथापि शिवजीकी आठ मूर्तियोंके अन्तर्गत होनेसे उससे अङ्गहार करने में कोई विरोध नहीं समझना चाहिये / अथ च-नृत्यमें चतुर कोई व्यक्ति बाल्य-तारुण्यरूप अवस्थाकी सन्धि (मध्य ) में वर्तमान कुनटी (नृत्यकलामें अनभिश) को भी सभा ( में उपस्थित दर्शकों) के अनुराग ( उत्पन्न करने ) में समर्थ मानकर विशाल मुक्तासमूहकी मालावाले आकाशवत् विशाल शरीरसे इस समय अङ्गहार ( नृत्य-विशेषमें शरीरका सञ्चालन ) करता है क्या ? अथच-महान् अर्थात् सन्ध्योपासनादि कर्ममें श्रेष्ठतम तथा गमनशील (-अथवा-(साय. काल में शिवजीको नृत्य करनेका नियम होनेसे ) महान् अर्थात् शिवजी हैं नट ( नृत्यकर्ता जिसमें ऐसा ) वह सन्ध्याकाल सूर्यकी. लालिमा होनेपर अर्थात् सूर्यकी लालिमाके कुछ. कुछ अवशिष्ट रहनेपर सन्ध्याशोभाको मैनसिलरूपिणी, अपने समयकी स्वामिनी (यादेवतारूपिणी, या-समृद्धिशालिनी) निश्चितकर थोड़ी-थोड़ी दृश्यमान, आकाशतक फैली हुई ( अथवा-सब ओर आकाशमें विस्तीर्ण) नक्षत्र-श्रेणिरूपिणी मालासे हार बनता है. क्या ? ( अथवा-गुथे गये शुद्ध मोतियोंकी मालासे हार बनाना युक्त समझकर सन्ध्याकाल नक्षत्र-समूहरूपी हार बना रहा है क्या ?, अर्थात् सन्ध्याकालकी लालिमा कुछ-कुछ अवशिष्ट रह गयी है और नक्षत्र-समूह मोतियोंके तुल्य कुछ-कुछ दृष्टिगोचर होने लगे ) / अथच-वह (प्रसिद्धतम ) महानट (शिवजी) सूर्यको लालिमा रहनेपर मैनसिलके समान अरुणवर्ण ( अथवा- (अस्थिर कान्ति होनेसे तुच्छ नर्तकीके समान ) सन्ध्याका सम्यक् ध्यानकर अर्थात् सन्ध्योपासन कर्म समाप्तकर (अपनी आठ मूर्तियोंमेंसे) तारा-समूहरूप.
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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