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________________ 1124 नैषधमहाकाव्यम् / (दोनों पार्दभागों तथा आगे पीछेके भवनों में किये जाते हुए यज्ञोंकी अग्निके तीव्रतम सन्तापसे वह उस प्रकार सन्तप्त हुआ जिस प्रकार बन्द हुए दो पात्रों के बीच रखी हुई दवा अपने चारो और जलायी गयी अम्बिके सन्तापसे सन्तप्त होती है)। और पूर्त ( तडाग, वापी आदि ) के तरङ्गरूप पङ्खोंकी वायुओंसे उस कलिका प्रत्येक अङ्ग मानो काटा गया हो (प्रत्येक शरीरको काटने के समान नगर के स्टागादिके तरङ्गोंकी वायुसे वह कलि पीडित हुआ)॥ 165 // पितृणां तर्पणे वर्णैः कीर्णाद् वेश्मनि वेश्मनि | कालादिव तिलात् कालाद् दूरमत्रसदन सः / / 166 / / पितृणामिति / सः कलिः, अत्र पुरे, वेश्मनि वेश्मनि गृहे गृहे, वीप्सायां द्विर्भावः / वर्णैः ब्राह्मणादिवर्णचतुष्टयः, पितृणां पितृपितामहादीनाम् अग्निष्वात्तादीनां पितृलोकानाञ्च, तर्पणे तर्पणकर्मणि, पितनुद्दिश्य तत्तप्त्यर्थ सतिलोदकदान. रूपपैयक्रियाविशेषे इत्यर्थः / कीर्णात् विक्षिप्तात् , कालात् तिलात् कृष्णतिलात् , कालात् मृत्योरिव 'कालो मृत्यौ महाकाले समये यमकृष्णयोः' इति विश्वः / दूरमत्यर्थम् , असत् त्रस्तः // 166 // यहॉपर ( नलकी राजधानी में ) प्रत्येक गृहमें (ब्राह्मणादि ) वर्गों के द्वारा ( अग्निष्वा. तादि तथा पिता-पितामहादि ) पितरों के तर्पणमें दिये गये काले ( कृष्ण वर्णवाले ) तिलोंसे काल ( यमराज ) के समान अत्यन्त डर गया। [ वर्गों के द्वारा प्रत्येक गृहमें पितृतर्पणकालमें काले तिल से कलि उस प्रकार अत्यन्त डरा, जिस प्रकार काले वर्णवाले यमराजसे कोई डता है ] // 166 // स्नातणां तिलकर्मेने स्वमन्तीर्णमेव सः / कृपाणीभूय हृदयं प्रविष्टैरिव तस्य तैः // 16 // स्नातृणामिति / कृपाणीभूय खगीभूय, तस्य कले, हृदयं वक्षःस्थलं, प्रविष्टैः कृतप्रवेशैः इव स्थितैः, तैः प्रसिद्धः, स्नातॄणां स्नायिनां, कृतस्नानानामित्यर्थः / तिलका उर्ध्वपुण्डादिभिः, सः कलिः, स्वम् आत्मानम् , अन्तः वक्षसि, दीर्णमेव पाटितमेव, मेने बुबुधे // 167 // वहांपर उस कलिने स्नानकर्ताओंके तलवार होकर मानो हृदय में प्रविष्ट हुए (खड्गाकार ईषद्वक्र गोपीचन्दन-भस्मादि द्वारा किये गये ) तिलकोंसे अपनेको हृदयमें विदीर्ण हुआ ही समझा। [ स्नानकर्ताओं के खड्गाकार कुछ टेड़े तिलकोको देखकर कलि अत्यन्त पीडित हुआ ] // 167 / पुमांसं मुमुदे तत्र विन्दन् मिथ्यावदावदम् / स्त्रियं प्रति तथा वीक्ष्य तमथ म्लानवानयम् // 168 // 1. 'तर्पणैः' इति पाठान्तरम्। 2. विदन्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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