________________ सप्तदशः सर्गः। 1125 पुमांसमिति / अयं कलिः, तत्र पुरे, मिथ्या अनृतम् , तस्याः, वदावदं वक्तारम् , 'चरिचलिपतिवदीनां वा द्वित्वमच्याक् चाभ्यासस्येति वक्तव्यम्' इति साधुः / 'वदो वदावदो वका' इत्यमरः / पुमांसं नरम , विन्दन् ‘प्राप्नुवन् , मिथ्यावादिनं लोकं पश्यन् इत्यर्थः / मुमुदे तुतोष, तदद्वारा प्रवेष्टुमैच्छदिति भावः / अथ हर्षलाभानन्तरमेव, तं पुरुषं, खियं नारी प्रति, तथा मिथ्या वदन्तम् , वीक्ष्य दृष्ट्वा, तस्य तई. मिथ्यां नोक्ति ज्ञात्वेत्यर्थः / ग्लानवान म्लानः, विषण्ण इत्यर्थः। 'संयोगादेरातो धातोः' इति निष्ठानत्वम् / अभूत इति शेषः। लिया सह नर्मोक्तो मिथ्याभाषणे दोषाभावादिति भावः // 168 // वहां पर मिथ्या बोलते हुए पुरुषको प्रार करता (पा०-जानता हुआ) यह ( कलि) प्रसन्न हुआ, इसके बाद (मुरतमें) स्त्रीके प्रति वैसा (मिथ्याभाषी) देखकर खिन्न हो गया। [ स्त्रीके प्रति रतिकाल में मिथ्या नर्मवचन बोलना दोषकारक नहीं होनेसे वैसा मिथ्यावचन बोलनेवाले पुरुषको पाकर कलि सुरतकालका नर्मोक्ति नहीं समझकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, किन्तु बाद में यह रतिकाल में स्त्रीसे परिहासमें मिथ्या वचन बोल रहा है। यह देखकर अत्यन्त खिन्न हो गया, क्योंकि बहुत देरके बाद नगरमें प्रवेश करनेका जो एक सहारा मिला था, वह भी दूर हो गया ] // 168 / / यज्ञयूपघना एजज्ञौ स पुरं शङ्कुसङ्घलाम् / जनैर्धर्मधनैः कीर्णाव्यालंक्रोडीकृताञ्च ताम् / / 169 // __ यज्ञेति / सः कलिः, यज्ञयूपः यज्ञीयपशुबन्धनस्तम्भः, घनां निरन्तराम् , व्या. सामित्यर्थः / पुरं नगरीम् , शङ्कसङ्खलाम् ‘अस्त्रविशेषाकीर्णामिव, तथा धर्मधनैः धार्मिकैः, जनैः लोकैः, कीर्णा व्याप्ताम , तां पुरीम् , व्यालेः सः श्वापदैः वा, 'व्यालो भुजङ्गमे करे श्वापदे दुष्टदन्ति नि' इति विश्वः / क्रोडीकृताम् अङ्कीकृतामिव, जज्ञो ज्ञातवान् , तद्वत् दुरासदाम् अमन्यतेत्यर्थः // 169 // ___ उस (क.लि ) ने यशके पशु बांधनेबाले ( कत्था, गूलर आदिके) खम्बोंसे व्याप्त उस पुरीको कीलों से व्याप्तके समान तथा धार्मिक लोगोंसे व्याप्त उस पुरीको व्यालों ( सौ यामतवाले हाथियों, या-व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं) से भरी हुई समझा। [जिस प्रकार शङ्कव्याप्त तथा सर्पो (या- मतवाले हाथियों, या-क्रूर व्याघ्रादि पशुओं) से व्याप्त वनभूमिमें चलना ( या-प्रवेश करना) अतिशय कष्टकर होता है, उसी प्रकार यज्ञके पशु बांधनेवाले खम्बोसे तथा धार्मिक जनोंसे व्याप्त उस पुरीमें चलना (या-प्रवेश करना) कलिके लिए अतिशय कष्टकर हुआ ] // 169 // स पार्श्वमशकद् गन्तुं न वराकः पराकिणाम् / मासोपवासिनां छाया-लङ्घने घनमस्खलत् / / 170 / / 1. 'व्याड-' इति पाठअन्तरम् /