________________ 1078 नैषधमहाकाव्यम् / होनेपर ( अथवा-वर्णोका साङ्कर्य नहीं होनेपर ) जातिनाश नहीं होनेपर या प्रकारान्तर ( वर्गों का साङ्कर्य होने ) से जातिनाश होनेपर ब्रह्मघाती आदिकी परीक्षाओंमें पराजयको प्रमाण मानो। [ब्रह्महत्या आदि पापोंके करनेपर अग्नि, जल आदि द्वारा परीक्षा की जाती है, उसे 'दिव्य' कहा जाता है। उस 'दिव्य' परीक्षा के समय यदि ब्रह्मघातीका हाथ नहीं जलता या वह जलमें नहीं डूबता तो उसे ब्रह्मघाती नहीं माना जाता, इस कारण यदि वर्णसङ्करता होनेसे ब्राह्मणादिकी शुद्ध जातिका हो लोप हो जाय तो वह 'दिव्य' परीक्षा किस प्रकार होगी ? अत एव उस वर्णसाकार्यको रोककर जातिशुद्धि रखनी ही पड़ेगी, अथवा-उस दिव्य परीक्षाके समय ब्रह्मघातीका हाथ जल जाता है और जो ब्रह्मघाती नहीं होता उसका हाथ नहीं जलता है, इस कारण उसे ही जातिशुद्धि में प्रमाण मानना चाहिये / 'अङ्ग' यह सम्बोधन वचन प्रतिकूलतासूचक है // 85 // ब्राह्मण्यादिप्रंसिद्धाया गन्ता यन्नेक्षते जयम् / तद्विशुद्धिमशेषस्य वर्णवंशस्य शंसति / / 86 // ब्राह्मण्यादीति / किञ्च, ब्राह्मणी आदिः यस्याः सा ब्राह्मण्यादिः, क्षत्रियादिली, सा चासौ प्रसिद्धा चेति तस्याः प्रख्यातब्राह्मण्यादिस्त्रियाः, गन्ता सम्भोक्ता, जन इति शेषः / जयं दिव्यपरीक्षणे जिनविजयं, न ईक्षते न पश्यति, ब्राह्मण्यादिगन्ता परीक्षासु कुत्रापि विजयं न लभते इत्यर्थः। इति यत् , तत् पराजयनम् एव जया. दर्शनमेव वा, अशेषस्य सबलस्य, वर्णवंशस्य ब्राह्मणादिकुलस्य, विशुद्धिं मातापित्रा. दिपरम्परया निर्दोषत्वं, शंसति कथयति, अन्यथा कथं तद्गन्तुः पातकित्वशंसी पराजयः ? इति भावः // 86 // ब्राह्मणी आदि ( अथवा-ब्राह्मणत्व आदि जाति ) से प्रसिद्ध स्त्रीका सम्भोग करनेवाला जो ( दिव्य शपथ लेते समय ) विजयी नहीं होता, वही ( उसका पराजय होना ही ) सम्पूर्ण वर्ण ( ब्रह्मणादि ) वंशकी विशुद्धिको कहता है / [ ब्राह्मणी आदिके साथ सम्भोग करनेवाला पुरुष जब दिव्य परीक्षा देने अर्थात् तप्तलौह हाथमें लेकर या जलमें डूबकी लगाकर शपथ करनेमें हार जाता है अर्थात तप्पलौहसे जल जाता और पानो में डूब जाता है ( और इसके विपरीत ब्राह्मणी आदि के साथ सम्भोग नहीं करनेवाला पुरुष उक्तदिव्य परीक्षामें विजयी हो जाता अर्थात् न तो तप्तलौहसे जलता या न पानी में डूबता ही है ), यही ब्राह्मण आदि रो की शुद्धि ( वर्णसङ्करताका अभाव ) होना बतला रहा है ] 11 86 // जलानलपरीक्षादौ संवादो वेदवेदिते। गलहस्तितनास्तिक्यां धिर धियं कुरुते न ते ? // 87 / / 1. एतदर्थ मनुस्मृतिः (8 / 114-115), याज्ञवल्क्यस्मृतिः (व्यवहाराध्याये 95-113) च द्रष्टव्ये / 2. '-प्रसिद्धायां' इति पाठान्तरम् / 3. 'यन्नेच्यते जयम्' इति पाठान्तरम्।