________________ त्रयोदशः सर्गः। 805 यमेन समं, तुर्यात् चतुर्थश्लोकात् , 'चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च' इति साधुः, वरुणेन समं नलस्य समानभावं सारूप्यं, जानती अवगच्छन्ती, अत एव विमुग्धा विमूढा, सा भैमी, तया देव्या, पुनः अवादि उदिता, वदेः कर्मणि लुङ्॥३१॥ इन चार श्लोकों ( 1327-30 ) में-से पहले ( 'अत्याजि- 13 / 27 ) श्लोकसे इन्द्रके साथ दूसरे ( 'येनामुना-' 13-28) श्लोकसे अग्नि के साथ, तीसरे ('यच्चण्डिमा-' 1329) श्लोकसे यमके साथ और चौथे ( 'किं ते-' 13 / 30) श्लोकसे वरुणके साथ उस (नल) की समानता को जानती हुई ( अत एव ) अत्यन्त भ्रममें पड़ी हुई दमयन्तीसे वह ( सरस्वती देवी) फिर बोली // 31 // त्वं याऽर्थिनी किल नलेन शुभाय तस्याःक स्यान्निजार्पणममुत्र चतुष्टये ते ? इन्द्रानलार्यमतनूजपयःपतीनां प्राप्यैकरूप्यमिह संसदि दीप्यमाने / / 32 / / अथ पुनदेवी देवेषु दाक्षिण्यात् दमयन्ती श्लेषभङ्गयन्तरेण क्लिश्नानि, श्लोकद्वयेन त्वमित्यादि / या त्वं नलेन निमित्तेन, अर्थिनी अर्थवती, किल, 'अर्थाचास. निहिते' इति इनिप्रत्ययः; तस्यास्तत्प्रार्थिन्याः, ते तव, ऐकरूप्यं नलसारूप्यं, प्राप्य इह अस्यां, संसदि स्वयंवरसभायां, दीप्यमाने राजमाने, अमुत्रामुष्मिन् , इन्द्रान. लार्यमतनूजपयःपतीनाम् इन्द्रवह्वियमवरुणानां, चतुष्टये चतुष्टयमध्ये, व कस्मिन् , निजार्पणम् आत्मसमर्पणं, शुभाय मङ्गलाय, स्यात् ? एतेषु कस्मिन्नपि आत्मदानं ते शुभाय न स्यादेव, यत एते इन्द्रादयः नलरूपधारिणः न त्वेषु कोऽपि वास्तविक नल इति तव प्रार्थना सफला न भवेदिति भावः। अन्यत्र-नलसारूप्यं धृत्वा इन्द्रादीनां चतुष्टये इह संसदि दीप्यमाने जाज्वल्यमाने सति, अमुत्र नले, निजाणं क्व कुतः, शुभाय स्यात् ? अपि तु न कुतोऽपि स्यात् , इन्द्रादीनपरितोष्य नलवरणं ते न शुभकरमिति भावः। एवम् अर्थद्वयेन क्रमात् नलप्राप्ती नैराश्यं तन्नस्पृह्यरू. पेण ताम् अतापयदिति तात्पर्यम् // 32 // जो तुम नल में अभिलाषवती हो, उस तुम्हारा इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण की एक. रूपता ( राजाके दिक्पालांश होने के कारण समानरूपता) को प्राप्तकर इस स्वयंवरमें इन चारों के प्रकाशमान रहने पर ( नल) में आत्म-समर्पण कैसे शुभ (भलाई ) के लि र नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा / ( अथवा-जो तुम नलमें निश्चय ही अभिः लापवती हो, उस तुम्हारा इन्द्र, अग्नि, यम और वरुणके एकरूपता (नलकी समानरूपता) को प्राप्तकर इस स्वयंवर सभामें दीप्यमान (ज्वलित = क्रोधित ) होते रहने पर इस (नल) में आत्म-समर्पण करना कहाँ अर्थात किस प्रकार शुभ ( कल्याण या हर्ष ) के लिए होगा ? अर्थात इनको छोड़कर नलका वरण करने पर तुम्हारा कल्याण नहीं होगा क्योंकि ये तुम्हें या नलको भी क्रुद्ध होकर शाप दे देंगे / अथवा--जो तुम नलमें अर्थिनी ( अभिलाषवती) हो ( इस प्रकार वर्णन किये गये भी नलको नहीं वरण करती ) उस तुम्हारा नल के समान