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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तत्रादृश्यतया प्रवेष्टु सर्वदा धर्मालोचनाविरहेण तत्र निर्बाधं वस्तुञ्च शक्नुयात् एवम् आरामादन्यत्र सर्वत्रेव धर्माचरणदर्शनात् तदपेक्षया आरामे वासस्य ईषत् स्वानुकूलत्वमिति भावः // 206 // मानी कलिने उस ( उपवन ) को लाखों रक्षकों (पहरेदारों ) से घिरा हुआ होनेसे (एकान्तप्रिय धर्मसाधक ) तपस्वियों की बाधासे रहित अत एव कुछ अनुकूल माना / ( अथवा-मानी कलिने उस उपवनमें लाखों रक्षकोंसे घिरा हुआ होनेसे बाधा ( के साथ अपनी स्थिति ) मानी, किन्तु तपस्वियोंसे बाधा नहीं मानी, अत एव उसको थोड़ा अपने अनुकूल माना ) / [ मानी कलिने यह समझा कि यहां लाखों पहरेदार पहरा दे रहे हैं, अत एव बहुत लोगों के आवागमन होनेसे एकान्तमें धर्मा वरण करना पसन्द करनेवाले तपस्वी यहां नहीं आवेंगे और अन्यत्र सर्वत्र धर्माचरण होते रहनेसे मुझे कहीं ठहरनेका स्थान नहीं मिलता, इस कारण यह उपवन ही मेरे ठहरने के लिये कुछ उपयुक्त है, वहां भी कभी-कभी नल-दमयन्तीके आने तथा रक्षकों के भी धर्मात्मा ही होनेसे उसे पूर्ण उपयुक्त नहीं समझा, किन्तु थोड़ा ही उपयुक्त समझा / अथवा-यहां लाखों पहरेदारोंसे ही हमें रहने में बाधा है। एकान्तप्रिय तपस्वियोंके यहां नहीं आने के कारण तज्जन्य बाधा नहीं है, अत एव अन्तर्धान होकर प्रवेश करने तथा रहनेकी शक्ति होने से पहरेदार की बाधा तो मैं दूर कर सकता हूँ, किन्तु उस शक्तिका तपस्वियोंके समीप वश नहीं चल सक से तज्जन्य बाधाको मैं दूर नहीं कर सकता; अत एव यह स्थान मेरे ठहरनेके लिए पूर्णतया उपयुक्त नहीं होते हुए भी कुछ तो उपयुक्त है ही, ऐसा कलिने समझा ] // 206 // दलपुष्पफलैर्देवद्विजपूजाभिसन्धिना। . स नलेनार्जितान् प्राप तत्र नाक्रमितुं दुमान् // 207 / / दलेति / सः कलिः, तत्र गृहारामे, दलैः पत्रैः, कुसुमैः, फलैः शस्यैश्च, देवानां हरिहरादीनाम्, द्विजानां ब्राह्मणानाञ्च, पूजायाः अर्चनायाः अभिसन्धिना अभिप्रायेण हेतुना, नलेन नेषधेन, अर्जितान् रोपितान् , दुमान् वृक्षान् , बिभीतकेतरानिति भावः / आक्रमितुम् अधिष्ठातुम् , न प्राप न शशाक इत्यर्थः / तेषां धर्मकार्योपयो. गित्वेन स्वस्य च पापरूपत्वेन तानारोढुं नापारयदित्यर्थः // 207 // ___ वह कलि नलके द्वारा पत्र ( बिल्वपत्र आदि ), पुष्प (चम्पा, गुलाब, केतकी जुही आदि) तथा फल ( आम, अनार, सेव, जम्बीर आदि ) से देवों तथा ब्राह्मगादि अतिथियोंकी पूजाके लक्ष्यसे रोपे गये पेडोंको ठहरने के लिए नहीं प्राप्त किया अर्थात् उन पेड़ोंपर नहीं ठहर सका // अथ सर्वोद्भिदासत्ति-पूरणाय स रोपितम् / बिभीतकं ददशैकं कुटं धर्मेऽप्यकर्मठम् / / 208 // अथेति। अथ उद्यानप्रवेशानन्तरम्, सः कलिः, कर्मणि घटते इति कर्मठं कर्मक्षम, तन्न भवतीति अकर्मठम् , 'कर्मणि घटोऽठच्' इति सप्तम्यन्तकर्मशब्दात् अठच्प्रत्ययः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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