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________________ 746 नैषधमहाकाव्यम् / ज्ज्य पतित्वा, तरणेः सूर्यस्य, भिदां भेदं, विधाय कृत्वा, यावत् , सूर्यमण्डलं भित्त्वैव, भवः संसार एव, अर्णवः समुद्रः, तीर्णः, अहो ! आश्चर्यम् / 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ / परिवाड योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः॥' इति दर्शनादिति / कर्णधारः नाविकः, तस्य अभावात् आशुगेन पवनेन, सम्भृताङ्गतां चाल्यमानदेहत्वं, गतैः प्राप्तः, जनैः अरित्रेण केनिपातेन, नौकापश्चाद्भागबद्ध काष्ठदण्डविशेषेणेत्यर्थः, विना तरणेः नौकायाः, भिदा भेदं, विधाय कृत्वा, समुद्रे निमज्ज्य भवार्णवः तीर्णः उत्तीर्णः इति च गम्यते // 71 // विना कर्णाकार लोहकण्टकवाली धारावाले बाणों से परिपूर्ण (विधे हुए) शरीरवाले इस राजाके शत्रुलोग शत्रु ( इस राजा ) से बचानेवाले ( इसकी अपेक्षा अधिक शूरवीर अन्य राजा, अथवा-कवच ) के विना युद्ध में मरकर तथा सम्पूर्ण सूर्यमण्डलका भेदन कर संसारको पार कर लिया, यह आश्चर्य है / पक्षा०-कर्णधार (पतवार पकड़ने वाला नाविक) तथा वायुसे पूर्ण अङ्ग ( नाव खेनेके रस्सी-पाल आदि साधन ) से रहित, इसके शत्रु डाँड़े ( नाव खेनेवाले बांस ) के विना सम्पूर्ण नावको तोड़कर तथा डूबकर ( अत्यन्त दुस्तर विशाल) समुद्रको पार कर गये, यह आश्चर्य है। [ युद्धमें मरनेवाले वीर सूर्यमण्डलका भेदनकर मुक्त हो जाते हैं। तथा पक्षा०-कर्णधार, अनुकूल वायु, डाँडा आदिके बिना नाव टूटनेपर भी अथाह समुद्रमें डूबकर उसे पार करना आश्चर्य ही है। यह राजा युद्ध में शत्रुओंको मार डालता है ] / / 71 / / / प्रपां न तत्रारिवधूस्तपस्विनी ददाति नेत्रोत्पलवासिभिर्जलैः ? // 72 / / अमुष्येति / यस्मात् अमुष्य भूलोकभुजः पृथिवीलोकस्थितस्य राज्ञः, न तु सूर्यवत् आकाशमार्गचारिण इति तात्पर्यम् ; भुजोष्मभिः भुजप्रतापैः, अरिवेश्मनि शत्रुगृहे, तपत्त : ग्रीष्मत्त रेव, क्रियते नित्यसन्तापः क्रियते इत्यर्थः, तस्मात् तत्र अरिवे. श्मनि, तपस्विनी शोच्या धर्मशीला च, अरिवधूर्नेत्रोत्पलयोर्वसन्तीति तद्वासिभिः जलैरभिः, उत्पलवासनावद्भिश्च जलैः, प्रपीयते अस्यामिति प्रपा पानीयशालिका, 'पाधातोः अङ् तां न ददाति ? इति काकुः, ददातीत्यर्थः, धार्मिका हि ग्रीष्मकाले वासितोदकप्रायाः प्रपाः प्रवर्तयन्तीति / एतेन राज्ञा शत्रुमारणात् सर्वाः शत्रुस्त्रियो निरन्तरं रुदन्तीति भावः // 72 // ____ इस राजाके बाहुप्रताप ( पक्षा०–बाहुजन्य गर्मी ) शत्रुके घरमें जो ग्रीष्म ऋतु करते हैं, इससे वहांपर ( शत्रुके घरमें ) तपस्विनी (दुखिया, पक्षा०-तपस्या करनेवाली अर्थात साध्वी ) शत्रुस्त्री नेत्र-कमलस्थित जल अर्थात् आँसू (पक्षा०-नेत्ररूप कमलोंसे सुवासित जलों) से प्याऊ ( पौसरा) नहीं देवे ? अर्थात् अवश्य देवे। [ग्रीष्म ऋतुमें साध्वी स्त्रीका कमल आदिसे सुगन्धित जलसे पौसरा चलाना उचित है। इसके द्वारा शत्रुके मारे जानेपर उसकी पतिव्रता स्त्री उसके घर में रोती है ] // 72 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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