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________________ 1488 नैषधमहाकाव्यम् / नाम सम्भावनायाम , इति सम्भावयामीत्यर्थः / अथ च यस्मिन् पीयूषे भवद्वाक्यभूतया वाण्या, स्वीयसुप्तिङन्तरूपाणां पदानां प्रक्षालनात् अनु पश्चात् , ग्रहणं ग्रहः, कृतोऽस्त्येव, अमृतक्षालिततयैव निर्दोष मधुरञ्च वदसीत्यर्थः / द्राक्षापानकक्षीरपीयूषादपि त्वद्वाणी मधुरतमा इति भावः / प्रभोर्यस्मिन्ननुग्रहातिशयः स एव प्रभोः चरणक्षालनादिकं यथा करोति तद्वत् इति बोध्यम् // 146 // (हे प्रिये !) तुम्हारी वाणीकी स्तुतिके लिए हम लोग ( मैं = नल तथा अन्यान्य जनता ) चतुर ( समर्थ ) नहीं है, अत एव अमृतकी स्तुति करते हैं (जिस प्रकार किसी बहुत बड़े व्यक्ति के पास नहीं पहुंच सकनेवाला मनुष्य उससे छोटेके पास जाकर ही सन्तोष कर लेता है, उसी प्रकार तुम्हारी उत्कृष्टतया वाणीकी स्तुति करनेमें असमर्थ हमलोग अमृतकी स्तुतिसे ही सन्तोष करते हैं ), उस अमृतके लिए गरुड़ तथा इन्द्रमें युद्ध हुआ था, उसे मैं उचित मानता हूं, क्योंकि दाखके पना ( पेय द्रव्य विशेष, या-शर्बत ) का मानमर्दन करनेवाली तथा गन्ने के विषयमें स्थिरतम निन्दावाली ( दाखके पने तथा गन्नेसे बहुत ही उत्तम ) यह तुम्हारी वाणी जिस ( अमृत ) में अपने पदों ( सुप्-तिङन्त. रूपपदों, पक्षा०-चरणों ) को धोने के बाद ग्रहण ( पक्षा०-धोनेका अनुग्रह ) किया है [ अमृतमें भी अपने सुप्-तिङन्तरूप पदोंको धोकर जो तुम्हारी वाणी उच्चरित होती है, उसके माधुर्यके विषयमें क्या कहना है पक्षा०-जिस वाणीने अमृतमें अपने पैरोंको धोनेकी कृपा की है, उसके समान अमृत भला कैसे हो सकता है ? और दान तथा गन्ने के विषयमें तो कुछ कहना ही निरर्थक है, क्योंकि तुम्हारी वाणीने दाखके पनेका मान-मर्दन तथा गन्नेको अत्यन्त अवज्ञात कर दिया है ] // 146 // शोकश्चेत् कोकयोस्त्वां सुदति ! तुदति तद्वथाहराज्ञाकरस्ते गत्वा कुल्यामनस्तं ब्रजितुमनुनये भानुमेतजलस्थम् / बद्ध यद्यञ्जलावप्यनुनयविमुखः स्यान्मयैकग्रहोऽयं दत्त्वैवाभ्यां तदम्भोऽञ्जलिमिह भवतीं पश्य मामेष्यमाणम्।।१-७॥ शोक इति / सुदति ! हे शोभनदन्ते दमयन्ति ! कोकयोः चक्रवाकयोः, शोकः विरहजनितशुक् , त्वां भवतीम् , तुदति पीडयति, चेत् यदि, तत् तदा, व्याहर बहि, ते तव, आज्ञाकरः आदेशपालकः, अहमिति शेषः / कुल्यां क्षुद्रकृत्रिमसरितम् , गत्वा प्राप्य, एतस्याः कुल्यायाः, जलस्थं जले प्रतिबिम्बितम् , भानुं सूर्यम् , अनस्तम् अस्तगमनाभावम् , जितुं प्राप्तम् , अस्ताचलगमनाभिप्रायं परित्यक्तमिः त्यर्थः / अनुनये विनयेन अभ्यर्थये, त्वयि अस्तमिते कोकयोरन्योऽन्यं वियोगः अव. श्यम्भावी, अतो नास्तं व्रज इति सविनयं प्रार्थये इत्यर्थः / यदि चेत् , मया नलेन, अञ्जलौ करद्वयलंयोगे, बद्धे कृतेऽपि, एकः एकमात्रः, ग्रहः अभिनिवेशः यस्य सः तादृशः एकग्रहः एकमात्रविषये दृढनिर्बन्धपरः, निजनिबन्धापरित्यागीत्यर्थः / चन्द्रा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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