________________ एकविंशः सर्गः। 1447 हरिहर-रूप धारण करने के लिए नीचेसे ऊपरतक ( चरणसे मस्तकतक) विभक्त करनेके. कारण शरीरके दो भाग क्यों किये हो (नृसिंहके समान ऊपर-नीचे आधे-आधे शरीरमें हरि तथा हरका रूप क्यों नहीं ग्रहण किये हो ) ? तथा नृसिंह भावमें अर्थात् नृसिंहरूप धारण करनेमें शरीरको तिर्यग्रुपसे क्यों विमक्त किये हो ? (हरिहरमूर्तिके समान ही चरणसे मस्तकतक आधे मागमें मनुष्य तथा आधे भागमें सिंह शरीरको क्यों नहीं धारण किये हो ? अर्थात् हरिहर तथा नृसिंह-इन दोनों रूपोंको धारण करनेके लिए एक ही प्रकारसे शरीरको विमक्त न करके भिन्न-भिन्न प्रकारसे क्यों विभक्त किये हो ?) / अथवा-स्वतन्त्र व्यक्तिसे क्या प्रश्न हो सकता है अर्थात् स्वतन्त्र व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर सकता है, उससे किसीको कुछ पूछनेका अधिकार नहीं है // 90 // आप्तकाम ! सृजसि त्रिजगत् किं ? किं भिनत्सि यदि निर्मितमेव ? | पासि चेदमवतीय मुहुः किं स्वात्मनाऽपि यदवश्यविनाश्यम ? // 91 // स्वतन्त्रत्वमेव स्फुटयति-आप्तेति / आप्तकाम ! हे कृतकृत्य ! निजप्रभावादेव पूर्णसर्वाभिलाष ! विष्णो ! अत एव नास्ति ते कार्यप्रयोजनं किमपि इति भावः। किं किमर्थम् , त्रयाणां जगतां समाहारः इति त्रिजगत् त्रिभुवनम् , सृजसि ? रचयसि ? आप्तकामस्य स्वप्रयोजनाभावादेतन्निष्प्रयोजनमिति भावः। यदि चेत् , निर्मितमेव सृष्टमेव, त्रिजगदिति शेषः, तर्हि किं किमर्थम् , भिनरिस ? विदारयसि ? निष्प्रयोजनमेव संहरसीत्यर्थः। यत् त्रिजगत् , स्वास्मना अपि स्वयमेव, अवश्यविनाश्यं निश्चितमेव संहार्यम् / 'लुम्पेदवश्यमः कृत्य' इति म-लोपः। इदं तदिदं त्रिजगत्, मुहुः वारं वारम्', अवतीर्य आविर्भूय, मत्स्यादिरूपेणावतीर्णः समित्यर्थः। किं किमर्थ वा, पासि च ? रक्षसि च ? अवश्यविनाश्यस्य रक्षणमनुपयुक्तमिति भावः / त्वमेव ब्रह्मादिरूपेण जगतः सृष्टिस्थितिसंहारान् करोषि, पर्यनुयोगानहश्चेति निष्कर्षः // 9 // हे पूर्णकाम ( विष्णो ) ! ( स्वप्रमावसे ही सम्पूर्ण अभिलाषाके पूर्ण होनेसे निष्काम होनेके कारण ) तीनों लोकोंको क्यों रचते हो ? तथा यदि रच ही दिया तो उसे नष्ट क्यों करते हो ? और यदि यह स्वयं विनाशशील है तो बार-बार (मत्स्य, कूर्म, राम, कृष्णादि रूपमें ) अवतार लेकर (जन्मादि नाना क्लेशोंको सहनेके लिए ) इसकी क्यों रक्षा करते हो ? [इन कार्योसे तुम्हारी परमस्वतन्त्रता सूचित होती है। तुम्हीं संसारत्रयकी रचना, पालन तथा संहार करनेवाले क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी हो; अत एव तुम्हारी महिमा वर्णनातीत है ] // 91 // जाह्नवोजलजकौस्तुभचन्द्रान पादपाणिहृदयेक्षणवृत्तीन् / उत्थिताऽब्धिसलिलात् त्वयि लोला श्रीः स्थिता परिचितान् परिचिन्त्य ? // जाह्नवीति / हे विष्णो ! भब्धिसलिका सागरोदका, उस्थिता उद्भूता,