________________ 1342 नैषधमहाकाव्यम् / इस प्रकार मस्तक रखकर तुम्हें प्रसन्न किया कि मानों मैं मद्यके नशेसे स्खलित होकर तुम्हारे पैर पर गिर पड़ा हूँ। यहां पर नलने स्खलित होना इसलिए कहा कि-यदि मैं ऐसा नहीं करता तो वे मुझपर रुष्ट हो जाती, और तुम्हारे चरणोंपर गिरकर क्षमायाचना नहीं करता तो तुम्हीं मुझपर रुष्ट हो जाती, अत एव चातुर्यपूर्वक मैंने अपना काम साध लिया, यह तुम स्मरण करती हो क्या ? ] // 80 // वेत्थ मय्यागते प्रोष्य यत्त्वां पश्यति हार्दिनि | अचुम्बीरालिमालिङ्ग-थ तस्यां केलिमुदा किल ? // 1 // वेत्थेति / हे प्रिये ! हृदयस्य कर्म हाई प्रेम / 'प्रेमा ना प्रियता हार्दम्' इत्यमरः / हार्दिनि प्रियपात्रे, हार्दिनि / इति दमयन्त्याः सम्बोधनं वा हार्दिनि ! हे अनुरा. गिणि! प्रोष्य प्रवासं गत्वा, आगते प्रत्यावृत्ते, मयि नले, स्वां भवतीम् , पश्यति वीक्षमाणे सति, आलिं सखीम् आलिङ्गय आश्लिष्य, केलिमुदा क्रीडाहर्षेण, तस्यां सख्याम , सख्याः गण्डदेशे इति यावत् , यत् किल इति अलीके, सख्यालिङ्गनचुम्ब. नव्याजेनेत्यर्थः / अचुम्बीः चुम्बितवती, मामेव त्वमिति शेषः। सख्यालिङ्गनचुम्ब. नव्याजेन मां प्रति स्वप्रेमभरं यत् सूचितवती असि, तत् वेत्थ ? स्मरसि ? // 81 // प्रवासकर प्रियपात्र ( अथवा-हे प्रियपात्रभूते दमयन्ति ! प्रवासकर ) मेरे आनेपर और तुम्हें देखते रहनेपर तुमने सखीका आलिङ्गनकर क्रीडाके इषके छलसे जो उसके कपोलका चुम्बन किया ( वास्तविकमें तो उसका आलिङ्गनकर चुम्बनके छलसे तुमने बहुत दिनपर लौटे हुए मेरा आलिङ्गन कर चुम्बन किया, किन्तु वहां उपस्थित सखियोंको यह दिखलाया कि क्रीडावशमें सखीका ही आलिङ्गनकर चुम्बन कर रही हूं ), इसे तुम जानती ( स्मरण करती ) हो ? // 81 // जागर्ति तत्र संस्कारः स्वमुखाद्भवदानने। निक्षिप्यायाचिषं यत्त्वां न्यायात्ताम्बूलफालिकाः ? // 82 // जागर्तीति / हे प्रिये ! स्वमुखात् निजाननात् , भवदानने तव वदने, ताम्बूल. फालिकाः नागवल्लीदलवल्लिकाः, वीटिकाखण्डानीत्यर्थः। चूर्णपूगफलादिसंयुक्तस्य मचर्वितस्य पर्णस्य खण्डानीति यावत् / निक्षिप्य न्यस्य, त्वां भवतीम् / 'ताः' इति पाठे-ताः ताम्बूलफालिकाः, न्यायात् निक्षिप्तद्रव्यप्रत्यर्पणधर्मात् , निक्षिप्तं द्रव्यं निक्षेपकस्यैव प्रत्यर्पयितव्यमिति नीत्यनुसारादित्यर्थः / यत् अयाचिष प्रार्थितवाना. सम्, अहमिति शेषः / तत्र याचने, संस्कारः नियतभावनाजनितस्मृतिविशेष इत्यर्थः / जागर्ति? उत्पद्यते ? स्मरसि किम् ? इत्यर्थः, इति काकुः // 82 // ( मैंने ) अपने मुखसे तुम्हारे मुखमें आधा चबाये हुए पानके बीड़ेको डाल ( दे ) कर ('जिसकी जो वस्तु ली जाती है, उसकी उस वस्तुको वापस करना उचित है' इस ) न्यायसे जो याचना की (तुमसे वह चर्वित पानका बीड़ा लौटानेको कहा ), उस विषयमें