________________ द्वादशः सर्गः। 721 काञ्चीपतेः बलपूर्वकं काञ्चीग्रहणस्य उचितत्वादिति भावः, अत एव प्रसीद प्रसन्ना भव, अनुमन्यस्वेत्यर्थः // 33 // वही क्यों नहीं करती हो ? जो यह उस (पहले भेजे हुए ) दूतके मुखसे चाहता है, क्या हानि है ? अर्थात् कोई हानि नहीं, अपितु लाभ ही है। प्रसन्न होवो ( इसे वरण करो, जिससे ) यह काञ्चीपुरीका राजा तुम्हारी काञ्ची ( करधनी ) को ( रतिकालमें ) ढीला करे ( अथवा-अधीरताके कारण गांठ खोलनेके विलम्बको नहीं सह सकनेसे तोड़े) [काञ्चीपतिका 'काञ्ची' पर पूर्णाधिकार होनेसे वैसा करना उचित ही है ] // 33 // मयि स्थितिर्नम्रतयैव लभ्यते दिरोध तु स्तब्धतया विलङ्घयते / इतीव चापं दधदाशुगं क्षिपन्नयं नयं सम्यगुपादिशद् द्विषः // 34 // मयीति / अयं काञ्चीपतिः, चापं दधत् आशुगं बाणं, क्षिपन् सन् द्विषः शत्रून् , मयि मत्समीपे, नम्रतयैव अवनत्या एव प्रणत्या च, स्थितिः अवस्थानं, स्वराज्ये प्रतिष्ठा इत्यर्थः, लभ्यते, स्तब्धतया अनम्रतया तु, दिगेव विलङ्घयते अतिक्रम्यते, स्वराज्यं त्यक्त्वा दिगन्तरं गम्यते इत्यर्थः, इति नयं नीति, सम्यक उपादिशदिव, ब्रुव्यर्थत्वात् द्विकर्मकः, उभयत्रापि युष्माभिरिति शेषः / धनुर्बाणदृष्टान्तेन द्विषां नम्रत्वे स्वराज्ये स्थितिः, अन्यथा स्वराज्यं त्यक्त्वा दिगन्तरगमनमिति वचनं विनैवोपादिशदिवेत्युत्प्रेक्षा // 34 // मुझमें अर्थात् मेरे पासमें नम्रभावसे ही स्थिति ( अपने राज्यमें निवास ) हो सकती है, स्तब्धता ( कठोरता-नहीं झुकने ) से दिशा ही लांघनी पड़ेगी धनुषको धारण करते हुए और बाणको फेकते हुए इस ( काञ्चीपुरोनरेश ) ने शत्रुओंको मानो नीतिका उपदेश दिया / [जिस प्रकार मैं झुकनेवाले धनुषको अपने पास रखता तथा कठोर होनेबाले बाणको दिशाके अन्त अर्थात् बहुत दूर तक फेक देता हूं, उसी प्रकार जो राजा मेरे सामने नम्र होगा ( प्रणामकर मेरी आज्ञा मानेगा), वही अपने राज्यमें ठहर सकेगा और जो कठोर होगा ( अकड़ दिखायेगा ) उसे मैं दिशाके अन्तमें फेंक दूंगा अर्थात् कहीं शरण नहीं मिलनेसे उसे दिगन्तमें ( बहुत दूर ) भागना पड़ेगा, ऐसी अपनी नीतिको, यह काञ्चीपुरीका राजा नम्र धनुषको पासमें रखना तथा स्तब्ध रहनेवाले बाणको सुदूर फेंकता हुआ शत्रुओंको उपदेश-सा दिया है ] // 34 // अदःसमित्सम्मुखवीरयौवतत्रुटभुजाकम्बुमृणालहारिणी / द्विषद्गणस्त्रैणहगम्बुनिम रे यशोमरालावलिरस्य खेलति // 35 // अद इति / अस्य काञ्चीपतेः, यशसामेव मरालानां हंसानाम् , आवलिः श्रेणी, अमुष्य भूपतेः, समित्सु युद्धेषु, सम्मुखानां वीराणां यानि यौवतानि युवतीसमूहाः, 'गार्भिणं यौवतं गणे' इत्यमरः / 'भिक्षादिभ्योऽण्' इति युवतिशब्दस्य भिक्षादिपाठात् समूहार्थेऽण-प्रत्ययः, 'भस्याढे तद्धिते' इति पुंवद्भावश्च, तेषां वैधव्यवशात् त्रुट्यन्ति