________________ 844 नैषधमहाकाव्यम्। उठा हुआ ) उस ( दमयन्ती ) का हाथ प्रिय (नल ) के सम्मुख होकर (लज्जासे ) हट गया और अत्यन्त चञ्चल कटाक्ष उस ( नल, पाठा०-प्रिय = नल ) के मुखके आधे (.नलको देखने की इच्छासे ) मार्ग में गया और ( लज्जासे ) लौट आया। [ दमयन्तीने नलके कण्ठमें जयमाल डालनेके लिए हाथ बढ़ाया, परन्तु लज्जासे उसे आगे नहीं बढ़ा सकी तथा नलको कटाक्ष ( नेत्रप्रान्त ) से देखना चाहा, किन्तु नलके आधे मुखको ही देखकर लज्जासे दृष्टिको हटा ली ] // 26 // तस्याः प्रियं चित्तमुदेतुमेव प्रभूबभूवाक्षि न तु प्रयातुम् | सत्यीकृतः स्पष्टमभूत्तदानीं तयाऽक्षिलज्जेति जनप्रवादः / / 27 / / तस्या इति / तस्याः दमयन्त्याः , चित्तमेव प्रियं नलम्, उदेतुं प्राप्तुं, इष्टमिति यावत्, प्रभूबभूव शशाकेत्यर्थः, अक्षि तु प्रयातुं नलं प्राप्तुं, द्रष्टमित्यर्थः, न, प्रभूबभूव इत्यनुषङ्गः, प्रभुशब्दादभूतद्भावे 'च्चौ' दीर्घः / चित्तमध्ये अनुक्षणं सा नलं ददर्श, किन्तु पुरःस्थितमपि तं लजावशात् चक्षुरुत्तोल्य द्रष्टुं न शशाकेत्यर्थः, अतएव अक्षिण चतुषि लज्जा, न तु चेतसि इति भावः, इति जनप्रवादः तया भैम्या, तदानीं नलवरणकाले, स्पष्टं यथा तथा सत्यीकृतोऽभूत् / अयं भावः-लज्जायाः चित्तधर्मत्वं वास्तवं न तु नेत्रधर्मत्वं, एवञ्च लज्जावशात् दमयन्त्याश्चितस्य नलप्राप्तिः नोचिता, वरं नेत्रस्यैव लज्जाधर्मकत्वाभावात् नलप्राप्तिरुचिता, इत्थञ्च अक्षिलज्जेति प्रवादोऽपि असत्य एव, किन्तु दमयन्त्याश्चित्तनेत्रयोस्तद्विपरीतकार्योत्पत्या अक्षिलज्जेति प्रवादः तया सत्यीकृत एवेति // 27 // ___ उस ( दमयन्ती ) का चित्त प्रिय (नल ) को प्राप्त करने अर्थात् देखने में समर्थ हुआ हो ( पाठा०-प्रियको प्राप्त कर ही लिया) किन्तु नेत्र प्रिय ( नल ) को पाने अर्थात् देखने में सयर्थ नहीं हुआ; उस समय उस ( दमयन्ती) ने 'नेत्रमें लज्जा होती है। इस लोकोक्तिको सत्य करके स्पष्ट कर दिया। [ लज्जाका चित्त-सम्बन्धी धर्म होनेसे दमयन्तीके चित्तको नल के पास नहीं जाना चाहिये था और नेत्र-सम्बन्धी धर्म नहीं होनेसे उसके नेत्रको नलके पास जाना अर्थात् नलको देखना चाहिये था; किन्तु ऐसा होने पर 'नेत्रमें लज्जा रहती है। यह लोकोक्ति असत्य प्रमाणित होती, अत एव दमयन्तीने चित्तसे नलका साक्षात्कार करने तथा लज्जावशीभूत नेत्रसे नलका साक्षात्कार ( दर्शन ) नहीं करनेसे उक्त लोकोक्तिको बिल्कुल सत्य कर दिया। दमयन्तीने मनसे ही नलका साक्षात्कार किया, नेत्रसे वह नहीं देख सकी ] // 27 // कथंकथञ्चिनिषधेश्वरस्य कृत्वाऽऽस्यपद्मं दरवीक्षितश्रि | वाग्देवताया वदनेन्दुबिम्बंत्रपावती साऽकृत सामिदृष्टम् // 26 // कथंकथञ्चिदिति / त्रपावती लज्जावती, सा भैमी निषधेश्वरस्य नलस्य, आस्य. 1. 'वित्तमुपेतमेव' इति पाठान्तरम् /