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________________ 1460 नैषधमहाकाव्यम् / 'इस ( सूर्यकी प्रार्थना किये जानेके ) कारणसे तुम्हारे परिहासके मूल (अथवातुम्हारे परिहासके मूल उन (सखियों ) के ) आनन्दके लिए तुम यहीं पर छिपी हुई अपनी सखियोंको मुहूर्ततक खोजो' इस प्रकार व्याज (छल) से दमयन्तीको अपनी सखियोंके विषयमें आसक्त ( या-चञ्चल ) चित्तवाली करके सायङ्कालकी विधि ( सन्ध्यो. पासनादि कर्म ) करने के इच्छुक नल ( प्रासादसे ) बाहर हो गये // 148 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / 1 तस्यागादयमेकविंशगणनः काव्येऽतिनव्ये कृतौ भैमीभत्त चरित्रवर्णनमये सगो निसोज्ज्वलः // 149 // श्रीहर्षमिति / भैमीमतुः नलस्य, यत् चरित्रं शीलम् , तद्वर्णनमये तत्कथना. धमके, काव्ये नव्ये नूतने, भत्र अस्मिन् , श्रीहर्षस्य कृती, एकविंशतिः गणना यस्य सः ताडशः अयं सर्गः अगात् समाप्तिं गतः। गतमन्यत् // 149 // . इति मल्लिनाथकृते 'जीवातु' समाख्यान एकविंशः सर्गः समाप्तः // 21 // कवीश्वर-समूहके ....."किया, उसके, दमयन्ती-पति (नल) के प्रचुर चरित्रवाले अत्यन्त नवीन रचनाबाले काव्य ( 'नैषधचरित' नामक महाकाव्य ) में स्वभावतः"यह इक्कीसवा सर्ग समाप्त हुआ। (शेष व्याख्या चतुर्थसर्गवत् समझनी चाहिये ) // 149 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित' का इक्कीसवां सर्ग समाप्त हुआ // 21 // -
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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