________________ 1452 नैषधमहाकाव्यम् / मन्दिरके भीतरी भागके समान प्राणियों के हृदय में जो अबकर ( रागद्वेषादि विकार पक्षाकूड़ा-कर्कट आदि ) उत्पन्न होते हैं, आपका स्मरण-समूह उसका शोधन (विनाश ) करनेवाला ( पक्षा०-स्वच्छ करनेवाला अर्थात् झाडू ) है / [ मन्दिर (घर) में उत्पन्न कूड़ेको जिस प्रकार झाड़ दूर कर मन्दिरको स्वच्छ कर देता है, उसी प्रकार आपका स्मरण प्राणियों के मनको रागद्वेषादि दूषित भाव दूरकर निष्पाप कर देता है, इस प्रकार आपका स्मरण ही प्राणियों के चित्तको शुद्धकर मोक्ष देनेवाला है ] // 99 // अस्मदाद्यविषयेऽपि विशेषे रामनाम तव धाम गुणानाम् / / अन्वबन्धि भवतैव तु कस्मादन्यथा ननु जनुत्रितयेऽपि ? // 100 // अस्मदिति / हे विष्णो ! विशेषे पार्थक्ये, तव नामसु कस्य उत्कर्षः इत्येवं तार• तम्यनिश्चये इत्यर्थः। अस्मदादीनां मद्विधानांमूढानाम्, अविषये ज्ञानागोचरे सत्यपि, तव ते, रामनाम सहस्रनामसु मध्ये रामेति नामैव, गुणानाम् उत्कर्षाणाम् , धाम आश्रयः, इति मन्यते इति शेषः / कुत इत्याह-अन्यथा तु.अथैवं नो चेत् पुनः, तव रामनाम्नोऽस्य गुणधामत्वाभावे तु इत्यर्थः। ननु भो नारायण! जनुषां जन्मनाम्, त्रितयेऽपि त्रयेऽपि, जामदग्न्य दाशरथि बलभद्रात्मकजन्मत्रयेऽपीत्यर्थः / भवतैव स्वयेव, कस्मात् कुतः हेतोः, अन्वबन्धि ? अनुबन्धं नीतम् ? राम इति एव तु नाम पुनः पुनरावृत्त्या गृहीतम् ? इत्यर्थः / त्रिष्वेव अवतारेषु स्वया रामनामग्रहणात् एतत्तेऽतीव प्रियमिति ज्ञायते अज्ञैरपि अस्माभिरिति भावः / तव नामसु रामनामैव श्रेष्ठमिति निष्कर्षः // 10 // (अब पुनः भगवान्के दूसरे नामोंकी अपेक्षा 'राम' नामका माहात्म्य कहते हैं-भगवान्के सहस्रों नामों में से किस नाममें अधिक गुण है ? इस प्रकारका ) विशेष ज्ञान हमलोगोंको नहीं रहनेपर मी 'राम' नाम ही तुम्हारे ( विष्णु भगवान्के ) गुणोंका स्थान है ( अथवातुम्हारा 'राम' नाम ही गुणोंका स्थान है ) / अन्यथा ( यदि ऐसा नहीं होता तो 'परशुराम', दशरथपुत्र 'राम' तथा 'बलराम' रूप ) तीनों जन्मों में भी किस कारण और क्यों 'राम' नामको आपने ही ग्रहण किया है ? [ उक्त तीनों अवतारोंमें विष्णु भगवान्को 'राम' नाम ग्रहण करनेसे यही नाम सब नामों में अधिक प्रिय एवं महत्वास्पद मालूम पड़ता है, अत एव मैं उसी का बराबर उच्चारण करता हूँ ] // 10 // भक्तिभाजमनुगृह्य हशा मां भास्करेण कुरु वीततमस्कम् / अर्पितेन मम नाथ ! न तापं लोचनेन विधुना विधुनासि ? // 101 / / भक्तीति / नाथ ! हे प्रभो ! विष्णो! भक्तिभाजं भक्तिमन्तं सेवकम् , मां नलम्, अनुगृह्य अनुकम्प्य, भास्करेण सूर्येण, दृशा नेत्रेण, सूर्यात्मकदक्षिणनयनेनेत्यर्थः / तादृशम् , 'राही ध्वान्ते गुणे तमः' इत्यमरः / कुरु विधेहि / तथा अर्पितेन मां प्रति