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________________ षोडशः सर्गः। 673 वेदोक्त कर्मके आरम्भ-समूहकी शीघ्रता उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती) के स्तम्मको नहीं जीत सकी अर्थात् सात्त्विक भावजन्य स्तम्भके कारण वे दोनों वेदोक्त वैवाहिक कार्यसमूहको जल्दी 2 नहीं कर सके और समिधा ( हवनकाष्ठ ) से बढ़ी अर्थात् जलती हुई आगे स्थित भी अग्नि ( सात्त्विक भावजन्य उन दोनोंके ) कम्पवेगको नहीं रोक सकी अर्थात् आगे जलती हुई अग्निसे सात्त्विक भावोत्पन्न उनके कम्पनका वेग नहीं दबा। [ स्तम्भके कारण शीघ्रता रहनेपर भी वे दोनों वेदोक्त वैवाहिक कार्य-समूहको शीघ्रतासे नहीं कर सके तथा अग्नि शीतजन्य कम्पन ( कँपकँपी ) को ही दूर कर सकती है, सात्त्विक भावजन्य कम्पनकी नहीं / अत एव यद्यपि उन दोनों के सात्त्विक भावजन्य स्वेद, अश्रु तथा रोमाञ्चको दर्शक लोग पूर्वोक्त ( 16:42-43) कारणोंसे लक्षित नहीं कर सके, किन्तु स्तम्भ तथा कम्पको सबन्दर्शकों ने लक्षित कर ही लिया ] // 44 // दमस्वसुः पाणिममुख्य गृह्णतः पुरोधसा संविदधेतरां विधेः / महर्षिणवाङ्गिरसेन साङ्गता पुलोमजामुद्वहतः शतक्रतोः // 45 // दमस्वसुरिति / दमस्वसुः दमयन्त्याः, पाणिं करं, गृह्णतः आददानस्य, ताम् उद्वहत इत्यर्थः / असुष्य नलस्य, पुलोमजां शचीम् , उद्वहतः परिणयतः, शतक्रतोः इन्द्रस्य, महर्षिगा आङ्गिरसेन बृहस्पतिना इव, पुरोधसा गौतमेन, विधेः श्रत्युक्तवैवाहिकानुष्ठानस्य, साङ्गता साङ्गत्वं, समाप्तिरिति यावत् , संविदधेतराम अतिशयेन सम्पादिता, 'किमेत्तिङव्ययघादा-' इत्यादिना आमुप्रत्ययः॥ 45 // इन्द्राणिके साथ विवाह करते हुए इन्द्र के समान दमयन्तीके साथ विवाह करते हुए इस (नल ) के ( वेदोर ) विधिकी साङ्गताको बृहस्पतिके समान पुरोहित गौतमने अच्छी तरह पूरा किया // 45 // स कौतुकागारमगात् पुरन्ध्रिभिः सहस्ररन्ध्रीकृतमीक्षितुं ततः। अधात् सहस्राक्षतनुत्रमित्रतामधिष्ठितं यत् खलु जिष्णुनाऽमुना // 46 / / स इति / ततः विवाह विधिसम्पादनानन्तरं, सः नलः, ईक्षितुं द्रष्टुं, वधूवरविश्रम्भालापमिति शेषः, सहस्ररन्ध्रींकृतम् अनेकच्छिद्रीकृतम् / बहुव्रीहावभूततद्भावे विः / कौतुकागारं कुतूहलवर्द्धकं मङ्गलगृहं, पुरन्ध्रिभिः पुरनारीभिः सह / 'वृद्धो यूना' इति ज्ञापकात सहाप्रयोगे सहार्थे तृतीया। अगात् प्राविक्षत् / यत् अगारं, जिष्णुना जयशीलेन, अमुना नलेन, जिष्णुना इन्द्रेण इत्यपि गम्यते, अधिष्ठितम् अधिरूढं सत् , सहस्राक्षतनुत्रमित्रताम् इन्द्रकवचतुल्यताम् , इन्द्रस्य सहस्राक्षदर्शनार्थ सहस्रच्छिद्रीकृतकवचसादृश्यमिति थावत् / अधात् खलु निश्चितं धारयामासेत्यर्थः॥ 46 // ___ इस (विवाहविधि ) के बाद वे ( नल, वधूवरकी चेष्टा एवं विश्रम्भपूर्वक भाषण आदि कार्यको ) देखने के लिए (तृण-काष्ठादिसे ) हजारों छिद्र किये हुए नगर-नारियों के साथ
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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