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________________ 674 नैषधमहाकाव्यम् / (अथवा-नगरनारियों के द्वारा वधूवरकी चेष्टाओं एवं विश्रम्भपूर्वक भाषणादि कार्यको देखने हजारों छिद्र किये ) कौतुकागार ( कोहबर ) में प्रवेश किये; विजयशील इस ( नल पक्षा०-इन्द्र ) से युक्त होते हुए जिसने मानो इन्द्र के कवचकी शोभाको धारण कर लिया था अर्थात् हजारों छिद्र होनेसे इन्द्रके कवचके समान शोभता था // 46 // अथाशनाया निरशेषि नो ह्रिया न सम्यगालोकि परस्परक्रिया / विमुक्तसम्भोगमशायि सस्पृहं वरेण वध्वा च यथाविधि त्र्यहम्।।४।। अथेति / अथ कौतुकागारप्रवेशानन्तरं, वरेण नलेन, दध्वा दमयन्त्या च, यथा. विधि यथाशास्त्रं, व्यहं त्रिदिनम् / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। 'तद्धितार्थ-' इत्यादिना समाहारे द्विगुः, 'राजाहः सखिभ्यष्टच' इत्यनेन टच , 'न सङ्ख्यादेः समाहारे' इति अह्लादेशाभावः, 'द्विगुरेकवचनम्' इत्येकवचनान्तता, 'रात्राहाहाः पुंसि' इति पुंलि. ङ्गता / अशनमिच्छतीति अशनाया बुमुक्षा, 'अशनायोदन्यधनायाबुभुक्षापिपासागर्द्धषु' इति क्यजन्ततया निपातनात् साधुः / नो निरशेषि न निःशेषीकृता, न पर्या. प्तम् अभोजि इत्यर्थः / ह्रिया लजया, परस्परक्रिया अन्योऽन्यचेष्टा, सम्यक यथेच्छं, न आलकि नो वीक्षिता, तथा विमुक्तसम्भोगं सम्भोगपराङ्मुखं यथा तथा, सस्पृहं साभिलाषम् एव, अशायि शयितुम् / भावे लुङ् / यथाह आपस्तम्बः-'त्रिरात्रमुभयोरधःशय्या ब्रह्मचर्यमक्षारलवणाशित्वञ्च तयोः शय्यामन्तरेण दण्डोपलिप्तवाससा सूत्रेण परिवीतयोरवस्थानत्वम् // 47 // ___ इस ( कौतुकागारमें प्रवेश करने ) के बाद वधू-वर (नल तथा दमयन्ती) ने तीन दिन तक लज्जासे अच्छी तरह भोजन नहीं किया, पारस्परिक चेष्टादिको नहीं देखा और सम्भोग रहित (किन्तु ) स्पृहायुक्त विधिपूर्वक शयन किया / [ उन दोनोंने कौतुकागारमें प्रवेशकर तीन दिनतक यद्यपि भोजन किया, परस्परमें एक दूसरेके कार्यको देखा और सोया; किन्तु लज्जासे न तो अच्छी तरह भोजन ही किया, न एक दूसरेके कार्य ( चेष्टाओं ) को ही देखा और न तो सम्भोगपूर्वक शयन ही किया; अपितु विधिके पालन करने के लिए साधारणतः भोजन किया, नेत्रप्रान्तसे (कनखी) से ही एक दूसरेके कार्यको देखा और चुम्बनालिङ्गनादि रतिवर्जित परन्तु उस रतिकी चाहना रखते हुए सोया। शास्त्रोक्तविधिके अनुसार वधू-वरने उसी कौतुकागारमें ब्रह्मचर्यपूर्वक तीन रात एकत्र निवास किया ] // 47 / / कटाक्षणाजन्यजनैर्निजप्रजाः कचित परीहासमचीकरत्तराम् / धराऽप्सरोभिवरयात्रयाऽऽगतानभोजयत् भोजकुलाङ्करः क्वचित् / / 48 / / कटाक्षणादिति / भोजकुलाङ्कुरः भोजवंशकुमारः दमः, क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे निजाः प्रजाः स्वजनान् / 'हृकोरन्यतरस्याम्' इति अण्यन्तकर्तः कर्मस्वम् / 'प्रजा. स्यात् सन्तती जने' इत्यमरः / कटाक्षणात् कटाक्षकरणात् , कटाक्षसङ्केतेन इत्यर्थः / कटाक्षयतेः 'तत् करोति-' इति ण्यन्ताद्भावे ल्युट / जन्यजनैः वरपक्षीयस्निग्धजनेः
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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