________________ द्वाविशः सर्गः। 1513 ग्याजेन द्राक् शीघ्रं मीलयतः संकोचयत आदिपुंसः श्रीविष्णोमिथोऽन्योन्यं मिलन्ती द्वावप्यञ्चलार्वाधापुटे यस्य निमीलनवशादन्योन्यसंलग्नपुटत्वानिबिडरोमकम्, अत एव श्यामस्वलदम्या विजितं नितरां पराभूतमिन्दुलचम येन तादृशं पचम नेत्रसंबन्ध्यू. धि:पुटपत्रीभूतरोमाण्येव तमांसि वयमाचचमहे ब्रमः, नतु ततोऽन्यानि तमांसी. त्यर्थः / तिमिरव्याप्तस्वास्किमपि न दृश्यत इति भावः / 'पचम' इति जात्येकवचनम् // सूर्यरूप ( दहने ) नेत्रको शीघ्र बन्द करते हुए आदिपुरुष ( श्रीविष्णु भगवान् ) के परस्परमें मिलते हुए दोनों प्रान्त ( नेत्रप्रान्त ) वाला तथा कालिमासे चन्द्रकलङ्कको जीतने. वाला अर्थात् उससे अधिक काले पक्ष्म ( पलकके बालों ) को ही हम अन्धकार कहते हैं। [इससे भिन्न 'अन्धकार' नामक कोई पदार्थ नहीं है। विष्णु भगवान्के दक्षिण तथा बाम नेत्ररूप सूर्य तथा चन्द्रमाके होनेसे सूर्यास्त होनेपर दहने नेत्रको बन्द करने और नेत्रको बन्द करनेपर उसके प्रान्तद्वय (दोनों पलकों) को भी बन्द होना तथा बाहरमें घनीभूत कृष्णवर्ण रोम-समूहका घनीभूत होकर अन्धकार मालूम पड़नेकी उत्प्रेक्षा की गई है ] // 33 / / विवस्वतानायिषतेव मिश्राः स्वगोसहस्रेण समं जनानाम् / गावोऽपि नेत्रापरनामधेयास्तेनेदमान्ध्यं खलु नान्धकारैः // 34 // विवस्वतेति / विवस्वता नेत्रमित्यपरं नामधेयं यासां ताश्चतरूपा जनानां गावोऽपि स्वस्य गवां किरणानां सहस्त्रेण समं सह मिश्रा दिने मिलिताः सत्योऽनायिषतेव नीता इव / यस्मात्तेन खलु तेनैवेदमान्ध्यं प्रकाशाभावान्नेत्रापगमाञ्च रूपाग्रहणं, नस्वन्धकारैः कृस्वेदमान्ध्यम् / तमोवशाकिमपि न दृश्यत इति भावः / अन्येनापि गोपालेन स्वगोसहस्रेण मिश्रिताः परेषामपि गावो नीयन्त इति // 34 // सर्य नेत्र ( आँख ) रूप नामान्तरवाले, लोगोंके गौओं (पक्षा०-नेत्रों) को अपने सहस्र गौओं (किरणों, पक्षा०-नेत्रों, या-गौओं) के साथ मानो लेकर चले ( अस्त हो) गये हैं, इसीसे यह प्रकाश भाव है, अन्धकारोंसे नहीं। [ लोकमें भी कोई गोपाल अपनी सहस्रों गौओंके साथ दूसरे लोगोंकी गौओंको भी मिलाकर जिस प्रकार चला जाता है, उसी प्रकार सूर्य भी अपनी सहस्रों गौओं (किरणों, पक्षा०-गौओं) के साथ अन्य लोगोंके गौओं (पक्षा-नेत्रों) को लेकर अस्त होने के बाद चले गये हैं, अत एव सूर्यको किरणों ( नेत्रों) एवं लोगोके नेत्रों के नहीं रहनेसे ही यह अन्धकारभाव (पदार्थदर्शन• शक्त्यभाव है, अन्धकारके कारणसे नहीं। यहाँ 'गो' शब्द सूर्यपक्षमें किरणार्थक तथा जनसमूहके पक्षमें नेत्रार्थक तथा गवार्थक है ] // 34 // ध्वान्तस्य वामोरु ! विचारणायां वैशेषिकं चारुमतं मतं मे | औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षमं तमस्तत्त्वनिरूपणाय / / 35 / / ध्वान्तस्येति / हे वामोरु अतिसुन्दरोरु ! ध्वान्तस्य विचारणायां तमःस्वरूप. नरूपणविषये वैशेषिकं मतं षट्पदार्थसाधर्म्यवैधर्म्यनिरूपणास्मकं काणादं दर्शनं चार