________________ एकविंशः सर्गः। 1361 अर्थात् मात्रादिके सम्यक् प्रकार उच्चारण करनेसे सन्देहरहित अक्षरोंवाले ( पक्षा०-त्रासादि दोषहीन स्फटिकके मणिरूपी बीजों में स्वच्छकान्तिवाले, अथवा-मणिरूपी बीज ही हैं अक्षर जिनके ऐसे ) तथा स्फटिकाक्षमालाके कपटको प्राप्त अर्थात् नलकी अधिक भक्तिसे स्फटिकाक्ष मालारूपमें परिणत होकर मूर्तिमान् हुए वेदमन्त्र सम्यक् प्रकारसे जप करते हुए इस (नल) के सामीप्यको प्राप्त किये अर्थात् समीपमें आकर साक्षात रूपसे रहने लगे। [नलने सूर्योपस्थान करने के बाद स्फटिककी मालासे गायत्रीका जप किया ] // 18 // पाणिपर्वणि यवः पुनराख्यदेवतर्पणयवार्पणमस्य / न्युप्यमानजलयोगितिलौघैः स द्विरुक्तकरकालतिलोऽभूत् / / 16 / / पाणिरिति / अस्य नलस्य, पाणेः करस्य, पर्वणि ग्रन्थौ, यवः यवाकारा स्पष्टरेखा, देवतर्पणे देवसम्बन्धितर्पणक्रियायाम , यवानाम् अर्पणं दानम् / कर्म। पुनराख्यत् पुनरुक्तम् अकरोत् / पुनः पुनर्दानमभाषतेवेत्यर्थः / पाणिपर्वस्थयवैरेव तदर्पणसम्पादनादिति भावः / तथा स नलः, न्युप्यमानेन पितृभ्यः दीयमानेन / 'पितृदानं निवापः स्यात्' इत्यमरः / जलेन उदकेन, युज्यन्ते मिल्यन्ते ये तैः तादृशः, तिलानां कृष्णतिलानाम् , ओघः समूहैः करणैः, द्विरुक्तः वारद्वयमुक्तः, पुनरुक्त इत्यर्थः / द्विगुणीभूत इति यावत् / करकालतिलः पाणिस्थकृष्णवर्णतिलाकाररेखा यस्य सः तादृशः, अभूत् अजायत, इवेति शेषः / नलः देवानां पितणाञ्च तर्पणं कृतवानिति भावः / भाग्यवतां हस्ते यवाकाराः तिलाकाराश्च रेखाः दृश्यन्ते इति सामुद्रिकाः॥ इस ( नल ) के हाथ ( की अङ्गुलियों ) के पर्व ( गांठों ) में स्थित यव ( सामुद्रिक शास्त्रानुसार शुभसूचक यवाकार चिह्नविशेष ) ने देवतर्पणमें दिये गये यवको पुनरुक्तकर दिया तथा पितृतर्पणमें जल के साथमें लिये गये तिल-समूह अर्थात् तिलोंसे वे नल (पहलेसे ही हाथमें स्थित शुभसूचक ) काले तिल के चिह्नसे पुनरुक्त हो गये। [ नलके हाथकी अङ्गुलियों के पर्वमें यत्र तथा तलहथी में काले तिलका चिह्न पहलेसे ही था, अतएव क्रमशः देवतर्पण तथा पितृतर्पण में नलने यव तथा तिल लेकर तर्पण किया तो वह यव तथा तिलका लेना पुनरुक्त हो गया। यवका हाथकी अङ्गुलियों के पर्वमें तथा काले तिलका तलहथीमें होना सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभसूचक माना जाता है। देव-तर्पण तथा पितृ-तर्पणका यहां वर्णन होने. से इसके मध्यगत ऋषितर्पणका भी करना सूचित होता है। नल ने देवर्षिपितृतर्पण किया ] // 19 // पूतपाणिचरणः शुचिनोच्चैरध्वनाऽनितरपादहतेन | ब्रह्मचारिपरिचारिसुरा वेश्म राजऋषिरेष विवेश / / 20 // पूनपाणिरिति / एषः अयम् , राजऋषिः मुनितुल्यनृपतिः, नलः इति शेषः / १.'-करतालुतिला' इति,-'करतालतिलः' इति, -करनालतिलः' इति च पाठान्तराणि।