________________ विंशः सर्गः। 1356 ( प्रकारान्तरसे कला अपने वचनकी सत्यता प्रमाणित करती है-अथवा-) उस (कान बन्द रहने के ) समय सचमुच ही मैंने सुना था, किन्तु 'धुम्, धुम्' ध्वनिको ही सुना था और मैंने 'सुनती हूँ' यही कहा था, ( किन्तु ) 'तुम्हारे वचनको भी ( सुनती हूँ )' यह नहीं कहा था। [ अत एव ध्वनिमात्रका सुनने के अभिप्रायसे मेरा वैसा कहना सदोष नहीं मानना चाहिये ] // 116 // आमन्त्र्य देव ! तेन त्वां तद्वैयर्थं समर्थये / शपथः कर्कशोदकः सत्यं सत्योऽपि दैवतः / / 117 / / आमन्त्र्येति / देव ! हे राजन् ! तेन 'व्यर्थाः स्युर्मम देव ! ताः' इत्यादि पूर्वोक्त. वाक्येन हेतुना, हे देव ! इति त्वां भवन्तम् , आमन्त्र्य सानुनयं सम्बोध्य, ताः अशृणवन्तमाम् इत्यादि गिरः, व्यर्थाः मिथ्याभूताः इत्युक्त्वा, तस्य अशृणवन्त मा. मिति शपथवाक्यस्य, वैयर्थ्य मिथ्यात्वम् , अथवा श्रतानां धुमुधुमेत्यादीनां ध्वनीनां वैयर्थम् अर्थशून्यत्वम् , 'धुम धुम्' इति शब्दस्य डित्थडविस्थादिवत् अर्थशून्यतया तच्छ्वणस्यापि निरर्थकत्वादिति भावः। समर्थये सिद्धान्तत्वेन स्थापयामीत्यर्थः / अहमिति शेषः / शपथकरणे मन्वायुक्तं दोषं जानत्या मया तु शपथः न कृतः, किन्तु अहं शपथं कृतवतीति देवस्यैव भ्रान्तिर्जाता, तथा हि देवतः देवताम् उद्दिश्य कृतः, सत्योऽपि यथार्थोऽपि, शपथः शपनम् , सत्यं निश्चितमेव, कर्कशोदकः कर्कशः धर्महानिकरत्वेन निदारुणः, उदर्कः उत्तरं फलं यस्य तादृशः, शोचनीयपरिणाम: इत्यर्थः / 'उदर्कः फलमुत्तरम्' इत्यमरः / भवतीति शेषः / 'सत्येनापि शपेद् यस्तु देवाग्निगुरुसन्निधौ / तस्य वैवस्वतो राजा धर्मस्याद्धं निकृन्तति / ' इति मनुस्मरणा दिति भावः // 117 // ( अब 'कला' पूर्वकृत ( 20:107 ) शपथका अर्थान्तर करके अपने वचनकी सत्यता प्रमाणित करती है-) हे देव ! उस व्यर्थाः स्युर्मम देवताः' ( 20 / 107) वचनसे आपको ही आमन्त्रितकर उस ( सुने हुए तथा आपके कहे हुए वचन ) की असत्यताका समर्थन करती हूं, सत्य के विषय में भी किया देव-सम्बन्धी शपथ कर्कश ( अनिष्ट ) परिणामवाला होता है। [ इसका भाव यह है-कला कहती है कि - मैंने तो 'हे देव ! मम गिरः मिथ्या वेत्थ चेत् , ता व्यर्थाः स्युः' अर्थात् 'हे राजन् ! हमारी बातोंको आप असत्य जानते हैं तो वे व्यर्थ ( असत्य ही ) हों' ऐसा कहा था, किन्तु आपने उसे शपथरूपमें समझ लिया, अत एव मेरे कहे गये अभिप्रायको समझनेमें यदि आपको भ्रम हो गया तो मुझपर असत्यभाषण करने वा शपथ लेनेका दोष नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि उक्ताभिप्रायसे कहने के कारण न तो मैंने असत्यमाषण किया और न शपथ ही लिया ] // 117 //