________________ 624 नैषधमहाकाव्यम् / नलबाहुः, मुद्रया अङ्गुरीयकेण सह वर्तते इति समुद्रः सागुरीयकः, सम् उनत्तीति समुद्रः सागरश्च / सा विपञ्चीत्यादिना जलधेः कारणादिकः ठ-प्रत्ययः / तस्य भावं समुद्रत्वं, बभार मुद्रिताभरणम् आमुमोचेति प्रकृतार्थः / सागरार्थस्तु ध्वनिरेव विशेषणविशेष्ययोरुभयोरपि श्लिष्टत्वादिति // 67 // उस (नल ) के बाहुने अंगूठियोंको पहना (अथवा-दण्डनीयोंको दण्ड देने तथा सज्जनोंकी रक्षासे राजधर्मके पालन करनेसे नियमके युक्तत्व ( सहितत्व ) को प्राप्त किया, अथवा-समुद्रत्वको प्राप्त किया ); जिस ( नल-बाहु, पक्षा०-समुद्र) से सम्पत्ति (या शोभा, पक्षा०-लक्ष्मी ) उत्पन्न हुई है तथा युद्धोंमें जिस ( नल-बाहु ) के निवारण (शत्रुमर्दन) करनेसे “शत्रु-सेनासे विरोध (युद्ध ) करते हुऐ वे न बलवान् हुए, (अथवा-जिसके निवारण करनेसे बलवान् होते हुए वे नल शत्रुका पराभव किये। अथवा-युद्धोंमें शत्रुसे विरोध करते ( लड़ते ) हुए वे ( नल ) जिस (बाहु) के युद्धसे बलवान् हुए / अथवा-शत्रुसे विरोध करता ( लड़ता ) हुआ वह ( अति प्रसिद्ध भी) शत्रु युद्धोंमें जिस ( नल-बाहु) के रोकने में बलवान् ( समर्थ) नहीं हुआ। अथवायुद्धोंमें शत्रुसे विरोध करता हुआ वह शत्रु जिस ( नल-बाहु ) के युद्ध में बलवान् ( समर्थ) नहीं हुआ / अथवा-गजराज वह ( सुप्रसिद्ध ) ऐरावत जिस ( नल-बाहु) के बलका द्वेष अर्थात् जिसकी सामर्थ्यके साथ स्पर्धा करता हुआ युद्धोंमें बलवान् (समर्थ) हुआ अर्थात् हीन बलवाला होकर भी 'वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः (किरात 1.8 ) अर्थात् बड़ोंके साथ विरोध करना भी अच्छा है' इस भारवि महाकविकी उक्तिके अनुसार जिस ( नलबाहु) के साथ स्पर्धा करनेसे लोकमें बलवान् कहलाया। अथवा-युद्धोंमें बलको जीतनेवाले वे (सुप्रसिद्ध ) इन्द्र भी जिस ( नल-बाहु ) के साथ युद्ध में बलवान् (समर्थ ) नहीं हुए। अथवा-( 'ब' तथा 'व' का अभेद मानकर ) युद्धोंमें बलको जीतनेवाले भी वह इन्द्र जिस (नल-बाहु ) के साथ युद्ध में बलवान् हुए अर्थात् भाग गये' | "इत्यादि अर्थोकी कल्पना करनी चाहिये ); और जिस ( नल-बाहु ) ने धनाभिलाषी बहुतसे याचकोंको ( अभिलषित धन देकर ) पूर्ण किया, (अथवा-जिस ( नल-बाहु ) ने सुन्दर बधुओंके इच्छुक बहुतोंको पूर्ण किया अर्थात् बहुतोंका सुन्दर स्त्रियों के साथ विवाह कराया। अथवा समुद्रपक्षमें - जिस ( समुद्र ) से उत्पन्न ऐरावतसे बलके शत्रु ( इन्द्र) बलवान् ( सामर्थ ) हुए, जिस (समुद्र) ने जलाभिलाषी मेघोंको पूर्ण किया ) // 67 // कृतार्थयन्नर्थिजनाननारतं बभूव तस्यामरभूरुहः करः / तदीयमले निहितं द्वितीयवद् ध्रवं दधे कङ्कणमालवालताम् / / 68 // कृतार्थयन्निति / तस्य नलस्य, करः हस्तः, अनारतम् अश्रान्तम् , अर्थिजनान् 1. अत्र 'वलनं वलस्तद्वान्' इति विग्रहो बोध्यः। 2. अन्न 'विनिवेशितं तदा' इति पाटः साधुः इति प्रकाशः।