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________________ 1186 अष्टादशः सर्गः। फिर भी लज्जाशीला दमयन्तीने कुछ नहीं कहकर केवल शिर हिलाकर निषेध कर दिया। अथवा-..."हुए भी उससे परिहास-भाषण करने के लिए उत्सुक नलने....."] // 70 // या शिरोविधुतिराह नेति ते सा मया न किमियं समाकलि ? / तनिषेधसमसङ्घयताविधिय॑क्तमेव तव वक्ति वाछितम् / / 71 / / येति / हे प्रिये ! ते तंव, या शिरोविधुतिः निषेधसूचकमस्तकचालनम् / की। न इति आह न दास्यामि इति निषेधं ब्रूते, सा इयं शिरोविधुतिः, मया न समा. कलि किम् ? न सम्यक अबोधि किम् ? अपि तु गृहीताथैव इत्यर्थः। कलयतेः कर्मणि लुङ्ग। किं त्वया समाकलि ? इत्याह-तस्य शिरोविधुतिद्वयरूपस्य प्रतिपाघस्य, निषेधस्य असम्मते, समसङ्घयतया प्रतिपादकस्य नोऽपि द्विसङ्ख्यतया, प्रतिपादितो विधिः विधानम् / 'द्वौ नौ प्रकृतमथं गमयतः' इति न्यायात् सुरतानुमोदनरूप इत्यर्थः / तव वान्छितम् अभिलाषम्, व्यक्तं स्फुटमेव, वक्ति कथयति / वचेर्लट / निषेधार्थमपि वारद्वयशिरोविधूननं ते सम्मतिमेव सूचयति, नजद्वयेन प्रकृतार्थस्य गम्यमानत्वादिति भावः // 71 // निषेधार्थक तुम्हारे शिरःकम्पनने जो 'नहीं' (सुरत मत करो) ऐसा कहा, उसे मैं ने नहीं समझा क्या ? अर्थात् शिरःकम्पनके द्वारा सुरतनिषेध करनेका तुम्हारा आशय मैंने समझ लिया है, ( वह आशय यह है कि-) उस (शिरःकम्पन ) का दो बार निषेध करना ( सुरत करनेकी स्वीकृतिरूप ) तुम्हारे चाहनाको स्पष्ट ही कह रहा है। [ नलके पूर्वोक्त ( 18170 ) वचन कहने पर जब दमयन्तीने शिरःकम्पन द्वारा निषेध कर दिया तब पुनः उसके साथ परिहासमाषणार्थ उत्सुक नल ने कहा कि तुमने शिर हिलाकर दो बार निषेध किया है, अतः द्वौ नौ प्रकृतमर्थ गमयतः' (दो निषेध प्रकृत अर्थ का समर्थन करते हैं) न्यायके अनुसार तुम सुरतकी स्वीकृति दे रही हो अर्थात् 'सुरत स्वीकार नहीं है, ऐसा नहीं है' इस वचनमें आये हुए दो निषेधोंसे सुरतकी स्वीकृति स्पष्ट ही ज्ञात होती है ] // 71 / / नात्थ नात्थ शृणवानि तेन किं ते न वाचमिति तां निगद्य सः / सा स्म दूत्यगतमाह तं यथा तज्जगाद मृदुभिस्तदुक्तिभिः / / 72 / / नेति / हे प्रिये ! न आत्थ मया सह त्वं न आलपसि, न आस्थ नैव कथयसि, तेन अनालपनेन हेतुना, ते तव, वाचं वचनम्, न शृणवानि किम् ? न शृणुयां किम् ? अपि तु शृणुयामेव, इत्यसम्भावनानिषेधः। सः नलः, तो प्रियाम् , इति एवम् , निगद्य उक्त्वा, सा भैमी, दूत्यगतं दूतरूपेण दमयन्तीसमीपमुपस्थितम्, तम् आस्मानं नलम्, यथा नवमसर्गोक्तेन येन प्रकारेण, आह स्म उक्तवती, तत् सर्वम् , मृदुभिः नम्राभिः, तस्याः दमयन्त्या एव, उक्तिभिः कथाभिः, दमयन्तीवा 1. 'सङ्घयता विधिम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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