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________________ त्रयोदशः सर्गः। ज्वाला) नहीं है अर्थात् काष्ठको प्राप्तकर यह अत्यधिक जलता है। ( अथवा-काष्ठमें समर्थ अर्थात् इन्धन पाकर बढ़नेवाले इसकी रुचि (ज्वाला ) कम नहीं है। सभिधाओं (काष्ठों, था प्रादेश परिमाण हवनीय काष्ठों ) के बीच में रहते हुए तृण शत्रु हैं क्या ? अर्थात् नहीं / (काष्ठसे जाज्वल्यमान इस ( अग्नि ) में तृण क्षणमात्रमें जल जानेसे कुछ नहीं कर सकते भर्थात यह जिस प्रकार युद्ध में शत्रुनाश शीघ्र करता है, उसी प्रकार तृण दाह भी क्षणमात्रमें ही कर डालता है)। इस लोकमें उत्थानशील (ऊपरकी ओर धधकते हुए) वेगवान् इसका पराभव विरोधी ( बुझानेका इच्छुक ) कोई व्यक्ति जलसे कर सकता है क्या ? अर्थात नहीं ( ऊपर की ओर धधकती हुई ज्वालाके साथ बढ़ती हुई अग्निको कोई बुझानेवाला विरोधी भादमी पानी से भी नहीं बुझा सकता / अथवा-कौन विरोधी पराभव कर सकता है अर्थात् कोई नहीं / अथवा--विरोधी पानीसे पराभव कर ( बुझा ) सकता है क्या ? अर्थात् नहीं-- षधकती एवं बढ़ी हुई अग्निको पानीसे भी नहीं बुझाया जा सकता। अथवा--'काकु' (प्रश्न) पक्षका त्यागकर 'ऊपर की ओर धधकती हुई अग्निका पराभव विरोधी ( बुभानेवाला) व्यक्ति पानीसे कर सकता है, अर्थात् पानीसे बुझा सकता है। रहित इस पक्षमें भी उक्त भन्य अर्थोकी कल्पना पूर्ववत् करनी चाहिये)। मलपक्षमें-शब्द-अर्थको तत्काल ग्रहण करनेमें चतुर ( तीन बुद्धि ) इस (नल ) की रुचि अल्पबुद्धियों में नहीं है / युद्ध में स्थित हुए इसके शत्रु तृग ( के तुल्य अर्थात् अकिचित्कर ) हैं ( युद्ध में इसे कोई भी शत्रु नहीं जीत सकता)। उदय ( या-उन्नति ) शील वेगवान् ( या-बलवान् ) इसका पराभव यहाँ पर (इस युद्धस्थलमें, या-इस संसार में ) भला कौन विरोधी कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं // 12 // साधारणी गिरमुषबुधनैषधाभ्यामेतां निपीय न विशेषमवाप्तवत्याः। ऊचे नलोऽयमिति तं प्रति चित्तमेकं ब्रते स्म चान्यदनलोऽयमितोदमीयम् / / ___ साधारणीमिति / उषसि बुध्यते इत्युपर्बुधोऽग्निः, 'अग्निवैश्वानरो वह्निः शोचि. प्केश उषर्बुधः' इत्यमरः / 'इगुपध-' इति कः, 'अहरादीनां पत्यादिषु वा रेफः' इति रेफादेशः, स च नैषधो नलश्च ताभ्यां, साधारणी समानाम् 'आग्नीध्र-साधारणा. दा' इति वक्तव्यादनि 'टिड्ढाण-' इत्यादिना ङीप, एतां गिरं निपीय आकर्ण्य, विशेष परस्परभेदकधर्म, नावाप्तवत्याः अप्राप्तवत्याः, भैम्याः इति शेषः, एकं चित्तं दमयन्तीसम्बन्धिनी एका बुद्धिः, तं पुरोवर्तिपुरुषं प्रति, अयं नल इत्यूचे इदमीयं दमयन्ती सम्बन्धि, अन्यदपरं चित्तम् , अयमनलोऽग्निः, इति ब्रूते स्म; अनलनल. कोटिद्वयावलम्बी संशयो न निवृत्त इत्यर्थः // 13 // अग्नि तथा नल के साथ समान ( एकार्थक) इस वचनको सुनकर विशेष (निर्णय ) को नहीं पाती हुई अर्थात् 'यह अग्नि है या नल' यह निश्चय नहीं करती हुई ( दमयन्तोका) एक मन/उस ( सामने स्थित पुरुष ) के प्रति 'यह नल है' ऐसा कहा तथा दूसरा चित्र
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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