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________________ 1462 नैषधमहाकाव्यम् / होनेसे ) मधुररूप प्रियस्तुतिपरक गाथाओं ( श्लोकों ) को उस प्रकार अत्यन्त स्पष्ट अक्षररचनाके साथ गाया कि पृथ्वोकी रति (रूपिणी, दमयन्ती) का पाला गया तोता सुनने. वालोंको हर्षित करता हुआ उन सम्पूर्ण गाथाओंको इस प्रकार ( 21 / 115--126) कहने लगा। [इससे वीणा बजानेवाली गन्धर्वराज कन्याओंकी वीणा बजानेमें नैपुण्य तथा तोतेको अतिशय तीव्रबुद्धि होना सूचित होता है, क्योंकि जिस वीणाके स्वर को सुनकर तोता भी अक्षरशः उच्चारण करता है, उसके स्पष्टाक्षर होने में सन्देह ही क्या हो सकता है ] / / 115 // अस्माकमुक्तिभिरवैष्यथ एत्र बुद्धर्गाधं युवामतिमती ! स्तुमहे तथाऽपि / ज्ञानं हि वागवसरावचनाद्भवद्भयामेतावदप्यनवधारितमेव न स्यात् / / 116 / / ___ अस्माकमिति / अति अत्यधिका, मतिः बुद्धिः ययोः तयोः सम्बोधनम् अति. मती ! हे महाबुद्धिसम्पन्नौ दमयन्तीनलौ ! अत एव अवैष्यथ इति भावः / युवां भवन्तौ, अस्माकं 'ममेत्यर्थः / उक्तिभिः वचनैरिव, मत्कृताभिः भवतोः स्तुतिगाथामिरेवेत्यर्थः / बुद्धः ज्ञानस्य, अस्माकमिति शेषः / गाधम् उत्तानस्वम् , अगभीरत्वमित्यर्थः / स्थूलबुद्धितामिति यावत् / अवैष्यथः ज्ञास्यथः, तथाऽपि स्तुमहे स्तवं कुर्मः, वयं युवामिति शेषः / हि यस्मात् भवद्भयां युवाभ्याम् , वागवसरे वाक्य. प्रयोगोचितावकाशे, भवदीयगुणोत्कर्षस्य समुचितवर्णनावसरे सत्यपीत्यर्थः / अवच. नात् अकथनात् तथावर्णनाऽकरणादित्यर्थः / एतावदपि इयदल्पमपि, ज्ञानम् अस्मदीयबुद्धिम् , अनवधारितमेव अज्ञातमेव, न स्यात् न भवेत् , अपि तु अवधारित. मेव स्यादित्यर्थः। भवतोगुणोत्कर्ण्यमेव बुद्धिहीनानप्यस्मान् स्तोतुमुत्सहते, अत उत्तानबुद्धयोऽपि वयं भवन्तो स्तुमह, ततश्च अनयव स्तुत्या अस्माकं ज्ञानं कियदिति ज्ञातुं शक्येत भवद्भयामिति भावः // 116 // हे विशिष्ट बुद्धिवाले ( दमयन्ती तथा नल) ! तुम दोनों हमलोगोंकी उक्तियों (तुमलोगोंकी का गयी स्तुति-रचनाओं) से ( हमलोगोंकी ) बुद्धिके छिछलापनको जान ही जाओगे, तथापि ( हमलोग तुम दोनोंकी) स्तुति करतो हैं, क्योंकि-बोलने (आप दोनोंकी स्तुति करने ) के अवसरपर भी ( हमलोगोंके ) नहीं बोलनेसे ( इनका ) इतना ही ज्ञान है। यह आप दोनोंसे अज्ञात ही रहेगा (वैसा न हो, अत एव हमलोग आप दोनों को स्तुति कर रही हैं, क्योंकि वर्णनीय विषयके वर्णन करनेपर हो वर्णनकर्ताका ज्ञान थोड़ा है या अधिक ? यह निश्चित होता है / अथवा-आप दोनोंका गुगाधिक्य ही थोड़े ज्ञानवाली भी हमलोगोंको स्तुति करने के लिए उत्साहित कर रहा है, अत एव हमलोग स्तुति कर रही हैं, इससे हमलोगोंका ज्ञान कितना है ? यह आप दोनों समझ जायेंगे ) / [इस प्रकार वीणा 1. इदमेकवचनं गन्धर्वराजकन्यानां वयस्यानां वा बहुत्वस्य विस्मरगमूलकम्' अग्रेऽपि स्वयं बहुत्वस्यैव प्रतिपादनादिति बोध्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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