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________________ नैषधमहाकाव्यम् / (नल ) से जो स्वयं ( नवमसोक्त ) वचनोंको कहा था, उस अविनय (प्रगल्भता ) को सोचकर लज्जासे 'मैं क्या करूं ? ऐसा ( वह ) कुछ नहीं जान सकी। [ नलके इन्द्रादिका दूत बनकर अपने महल में आने के बाद दमयन्तीने जो अपने विरहप्रकाशक वचनों को कहा था, उस धृष्टताको सोचकर 'मुझे इस समय क्या करना चाहिये' इस बातको लज्जित वह दमयन्ती नहीं समझ सकी। नवसङ्गममें स्वाभाविक लज्जाने पूर्वोक्त वचनके स्मरण से दम. यन्ती को किंकर्तव्यमूढ बना दिया ] // 29 // यत् तया सदसि नैषधः स्वयं प्राग्वृतः सपदि वीतलजया / तन्निज मनसिकृत्य चापलं सा शशाक न विलोकितुं नलम / / 30 // यदिति / किञ्च, तया भैग्या, प्राक पूर्वम् , स्वयंवरकाले इत्यर्थः / सदसि स्वयंघरसभायाम् , सपदि सहसा, वीतलज्जया विगतत्रपया सत्या, नैषधः नलः, स्वयम् भास्मना, नलककयाजाऽभावेऽपि इति भावः / वृतः पतित्वेन स्वीकृतः, इति यत् तत् स्वयंवरणरूपम् , निजम् आत्मीयम, चापलं धाष्टर्यम् , मनसिकृत्य हृदि निधाय 'मनस्याधान उरसिमनसी' इति समासे क्त्वो ल्यबादेशः। सा भैमी, नलं नैषधम् , विलोकितुं द्रष्टुमपि, न शशाक न चक्षमे // 30 // वीतलज्जा ( लज्जाहीना ) उस (दमयन्ती) ने जो पहले स्वयंवर सभामें नलको स्वयं ( विना किसीकी प्रेरणा किये ही) वरण कर लिया, अपनी उस चपलताको सोचकर वह ( दमयन्ती) नलको देखने में भी समर्थ नहीं हुई। [ उस तीनों लोकोसे आये हुए सहस्रों पुरुषों के सामने मैंने लज्जा छोड़कर नलको बिना किसीकी प्रेरणा किये ही वरण कर लिया, यह स्मरण कर अतिशय लज्जित वह दमयन्ती दलको देख भी नहीं सकी। इन दोनों श्लोकोंसे दमयन्तीकी लज्जाका आधिक्य बतलानेसे उसका उत्तम नायिका होना सूचित होता है ] // 30 // आसने मणिमरीचिमांसले यां दिशं स परिरभ्य तस्थिवान् | तामसूयितवतीव मानिनी न.व्यलोकयदियं मनागपि / / 31 // आसने इति / सः नलः, मणिमरीचिभिः रत्नकिरणैः, मांसले सान्द्रे, समुद्भा. सिते इत्यर्थः / आसने मणिपीठे, यां दिशं ककुभम् , परिरभ्य आश्रित्य इत्यर्थः / तस्थिवान् उपविवेश, यहिगाभिमुख्येनावस्थित इत्यर्थः। मानिनी अभिमानवती, इयं दमयन्ती, तां प्रियपरिरब्धां दिशम् , असूयितवतीव दिशः स्त्रीत्वेन सापल्यात् ईयितवतीव इत्युत्प्रेक्षा, मनाईप ईषदपि, न व्यलोकयत् न अपश्यत् , नलन्तु किमु वक्तव्यमिति भावः // 33 // (अनुरागाधिक्यसे एक बड़े आसनपर बैठे हुए उन दोनोंमेंसे ) नल मणियोंकी किरणोंसे व्याप्त आसनपर (आसनके एक भागमें ) जिस दिशाका आलिङ्गनकर अर्थात् दिशाकी ओर बैठे थे, अपने प्रिय नलद्वारा आलिङ्गित होनेसे उस दिशामें ( सपत्नीमाक
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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